प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी ऋषि दयानन्द के विद्यागुरु थे। उन्होंने ही स्वामी दयानन्द को अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति से व्याकरण पढ़ाया था और शेष समय में उनसे शास्त्रीय चर्चायें करते थे जिससे स्वामी दयानन्द जी ने अनेक बातें सीखी थी।

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हमारे पूर्वजन्म के शुभ कर्मों के आधार पर हमें सभी प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य योनि में जन्म मिला है। जीवन का कुछ व अधिकांश भाग हम व्यतीत कर चुके हैं। कुछ भाग शेष है जिसके बाद हमारी मृत्यु का होना अवश्यम्भावी है और यह निर्विवाद सत्य है। हम जीवन में शरीर के पालन हेतु आहार, विहार तथा व्यायाम आदि पर ध्यान देते हैं। कुछ लोग जिह्वा के स्वाद में पड़कर आहार के नियमों का उल्लंघन भी करते हैं।

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यज्ञ वा अग्निहोत्र की हम समस्त आहुतियों को ‘इदमग्नये, इदन्न मम’ कहकर ईश्वर को समर्पित करते हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी सत्ता होने से हमारे बाहर भीतर ओतप्रोत हो रहा है। हमारी प्रार्थनाओं को वह स्पष्टतः सुनता है। हम मन में विचार भी करते हैं तो उसे भी वह यथावत् जानता है।

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आदि शंकराचार्य बचपन से ही आत्मज्ञान के धनी थे। उन्होंने देखा, समझा, और जाना कि यहां तो मनुष्य यह जानने की कोशिश, प्रयत्न ही नहीं करते हैं कि इस संसार में हम सब प्राणियों को और सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि को किसने बनाया है, क्यों बनाया है, कोई तो ऐसा कारण होगा। क्या- हमारा इन सभी गूढ़ रहस्यों को जानने समझने का फर्ज नहीं बनता है?

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आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आंदोलन है जिसकी स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने १८७५ में बंबई में मथुरा के स्वामी विरजानंद की प्रेरणा से की थी। ... स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है।

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वेद जीवित पितरों की सेवा का ही वर्णन करते हैं, मृतकों की सेवा का नहीं , जैसाकि 🔥 आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्याय। पुत्रेभ्यः पितरस्तस्य वस्वः प्रयच्छत इहो दधात ॥ -यजुः० १९ । ६३ 🌻भाषार्थ-हे पितरो! हवि देनेवाले मनुष्य यजमान के लिए आप धन देवें। आप कैसे हैं? लाल रंग के ऊन के आसनों पर बैठे हुए। और हे पितरो! आप पुत्र और यजमानों से उस धन का धारण करो, और वे आप इस संसार में हमारे यज्ञ में रस धारण करो ॥६३॥

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वेद में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है। वेद तो घोषणापूर्ण कहते है -- *न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः* | ( यजुर्वेद ३२ -३ ) अर्थात जिसका नाम महान यशवाला है उस परमात्मा की कोई मूर्ति , तुलना , प्रतिकृति , प्रतिनिधि नहीं है। *प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस देश में मूर्तिपूजा कब प्रचलित हुई और किसने चलाई ?*

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नियोग प्रथा, वैदिक कालीन समाज में, *केवल आपत्काल के लिए* एक सहज स्वीकार्य प्रथा रही है। परिवार के सुख, पूर्णता तथा वंश संरक्षण और उन्नति के लिए इस प्रथा का प्रचलन हुआ था। यह प्राचीन काल से लेकर पुराणकाल तक मिलती है। पांच पाण्डव, धृतराष्ट्र, विदुर आदि दर्जनों प्राचीन राजा, ऋषि-मुनि नियोगज सन्तानें थीं। पति या पत्नी की मृत्यु हो जाने पर अथवा पति या पत्नी के असाध्य रोग से ग्रस्त होने पर सन्तानार्थ यह विधि अपनाई जाती थी जो परिवार-संस्था को बचाने का उपयोगी उपाय थी।

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आर्यसमाज की स्थापना ऋषि दयानन्द सरस्वती ने 10 अप्रैल, सन् 1875 को की थी जब हमारा देश अंग्रेजों का पराधीन था। आर्यसमाज की स्थापना की आवश्यकता क्यों पड़ी थी, इसका उत्तर है कि देश से अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास, मिथ्या-परम्पराओं आदि को दूर कर देश को स्वतन्त्र कराना था

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मेरा जन्म कोलकाता में एक पढ़े लिखे परिवार में हुवा, इस परिवार ने कई डॉ० इंजीनियर से ले कर शिक्षा विद बोलपुर शांति निकेतन श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के विश्वविद्यालय के अरबी फारसी के विभाग अध्यक्ष भी दिया |

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ऋषि दयानन्द ने महाभारत युद्ध के बाद समाज में उत्पन्न अन्धविश्वासों, पाखण्डों, सामाजिक कुप्रथाओं, शिक्षा व अध्ययन में अनेक प्रकार के प्रतिबन्धों का जमकर विरोध वा खण्डन किया और उन्हें वेदविरुद्ध, अविद्या का पोषक तथा मानव जाति के लिये अहितकर बताया।

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जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं। वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है।

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