मूर्ति पूजा के संबंध में एक महत्वपूर्ण अनेको शास्त्रों से प्रमाण युक्त लेख आज किसी बड़े विद्वान का लिखा हुआ पढने को मिला।
*इस ग्रुप(वॉट्सएप्प ग्रुप- नमस्ते जी, ग्रुप ऐडमिन - पं .दिनेश पथिक जी) के विद्वान और बुद्धिजीवियों से निवेदन है कि लेख में दिए गए प्रमाणों के आधार पर सबका मार्गदर्शन करें।कि सत्यता क्या है?*
एक एक शब्द ध्यान से पढ़कर न्यायाधीश की तरह ही विचारकर लिखें।
वेद में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है। वेद तो घोषणापूर्ण कहते है --
*न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः* | ( यजुर्वेद ३२ -३ )
अर्थात जिसका नाम महान यशवाला है उस परमात्मा की कोई मूर्ति , तुलना , प्रतिकृति , प्रतिनिधि नहीं है।
*प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस देश में मूर्तिपूजा कब प्रचलित हुई और किसने चलाई ?*
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में प्रश्नोत्तर रूप में इस सम्बन्ध में लिखते हैं -
प्र - मूर्तिपूजा कहाँ से चली ?
उ - जैनियों से |
प्र - जैनियों ने कहाँ से चलाई ?
उ - अपनी अल्पज्ञता से।
*पण्डित जवाहरलाल नेहरु के अनुसार ,* मूर्तिपूजा बौद्धकाल से प्रचलित हुई | वे लिखते हैं --
"यह एक मनोरंजक विचार है कि मूर्तिपूजा भारत में यूनान से आई। वैदिक धर्म हर प्रकार की मूर्ति तथा प्रतिमा-पूजन का विरोधी था। उस काल ( वैदिकयुग ) में देवमूर्तियों के किसी प्रकार के मंदिर नहीं थे। ........प्रारम्भिक बौद्ध धर्म इसका घोर विरोधी था .........पीछे से स्वयं बुद्ध की मूर्तियाँ बनने लगी। फ़ारसी तथा उर्दू भाषा में प्रतिमा अथवा मूर्ति के लिए अब भी बुत शब्द प्रयुक्त होता है जो बुद्ध का रूपांतर है।" ( हिन्दुस्तान की कहानी -पृ १७२ )
*एक अन्य स्थल पर वे लिखते हैं --*
"ग्रीस और यूनान आदि देशों में देवताओं की मूर्तियाँ पुजती थीं। वहाँ से भारत में मूर्तिपूजा आई। बौद्धों ने मूर्तिपूजा आरम्भ की। फिर अन्य जगह फ़ैल गई।" ( विश्व इतिहास की झलक - पृ ६९४ )
इन उद्धरणों से इतना निश्चित है कि मूर्तिपूजा हमारे देश में जैन-बौद्धकाल से आरम्भ हुई | जिस समय भारत में मूर्तिपूजा आरम्भ हुई और लोग मन्दिरों में जाने लगे तो भारतीय विद्वानों ने इसका घोर खण्डन किया | मूर्तिपूजा खण्डन में उन्होंने यहाँ तक कहा --
*गजैरापीड्यमानोsपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्* ( भविष्य पुराण. प्रतिसर्गपर्व ३-२८-५
*अर्थात , यदि हाथी मारने लिए दौड़ा आता हो और जैनियों के मन्दिर में जाने से प्राणरक्षा होती हो तो भी जैनियों के मन्दिर में नहीं जाना चाहिए।*
लेकिन ... उपदेशकों और विद्वानों के कथन का साधारण जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उन लोगों ने भी मन्दिरों का निर्माण किया। जैनियों के मन्दिरों में 24 तीर्थंकर की नग्न मूर्तियाँ होती थी , इन मन्दिरों में उनके स्थान पर 24 अवतारों की भव्यवेश में भूषित हार-श्रृंगारयुक्त मूर्तियों की स्थापना और पूजा होने लगी।
भारत में पुराणों की मान्यता है लेकिन पुराणों में भी मूर्तिपूजा का घोर खण्डन किया गया है -
*यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके | स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः।।*
*यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिर्चिज् । जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखारः।।* ( श्रीमद भागवत १०-८४-१३ )
*अर्थात , जो वात , पित और कफ -तीन मलों से बने हुए शरीर में आत्मबुद्धि रखता है , जो स्त्री आदि में स्वबुद्धि रखता है , जो पृथ्वी से बनी हुई पाषाण -मूर्तियों में पूज्य बुद्धि रखता है , ऐसा व्यक्ति गोखर - गौओं का चारा उठाने वाला गधा है।*
*न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः।*
*ते पुनन्त्यापि कालेन विष्णुभक्ताः क्षणादहो ।।* ( देवी भागवत ९-७-४२ )
अर्थात , पानी के तीर्थ नहीं होते तथा मिटटी और पत्थर के देवता नहीं होते। विष्णुभक्त तो क्षण मात्र में पवित्र कर देते हैं। परन्तु वे किसी काल में भी मनुष्य को पवित्र नहीं कर सकते।
*दर्शन शास्त्रों में भी मूर्तिपूजा का निषेध है -*
न प्रतीके न ही सः ( वेदान्त दर्शन ४-१-४ )
प्रतीक में , मूर्ति आदि में परमात्मा की उपासना नहीं हो सकती , क्योंकि प्रतीक परमात्मा नहीं है।
संसार के सभी महापुरुषों और सुधारकों ने भी मूर्तिपूजा का खण्डन किया है।
*आदिगुरु श्री शंकराचार्य जी परपूजा में लिखते हैं --*
पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम् ।
स्वच्छस्य पाद्यमघर्यं च शुद्धस्याचमनं कुतः ।।
निर्लेपस्य कुतो गन्धं पुष्पं निर्वसनस्य च ।
निर्गन्धस्य कुतो धूपं स्वप्रकाशस्य दीपकम् ।।
अर्थात , ईश्वर सर्वत्र परिपूर्ण है फिर उसका आह्वान कैसा ?
जो सर्वाधार है उसके लिए आसन कैसा ?
जो सर्वथा स्वच्छ एवं पवित्र है उसके लिए पाद्य और अघर्य कैसा ?
जो शुद्ध है उसके लिए आचमन की क्या आवश्यकता ?
निर्लेप ईश्वर को चन्दन लगाने से क्या ?
जो सुगंध की इच्छा से रहित है उसे पुष्प क्यों चढाते हो ? निर्गंध को धूप क्यों जलाते हो ?
जो स्वयं प्रकाशमान है उसके समक्ष दीपक क्यों जलाते हो ?
*चाणक्य जी लिखते हैं--*
अग्निहोत्र (हवन)करना द्विजमात्र का कर्तव्य है। मुनि लोग हृदय में परमात्मा की उपासना करते हैं। अल्प बुद्धि वाले लोग मूर्तिपूजा करते है। बुद्धिमानों के लिए तो सर्वत्र देवता है। ( चाणक्य नीति ४-१९ )
*कबीरदास जी कहते हैं -*
पत्थर पूजे हरि मिले तो हम पूजे पहार।
ताते तो चाकी भली पीस खाए संसार।।
*दादुजी कहते हैं--*
मूर्त गढ़ी पाषण की किया सृजन हार।
दादू साँच सूझे नहीं यूँ डूबा संसार।।
*गुरुनानकदेव जी का उपदेश है --*
पात्थर ले पूजहि मुगध गंवार।
ओहिजा आपि डूबो तुम कहा तारनहार।।
नानक एको सुमरियो,जो जल थल रहा समाये।
काहे दूजा सुमरियो, जो जनमेते मर जाये।
*कुछ अज्ञात लोगों के कथन --*
पत्थर को तू भोग लगावे वह क्या भोजन खावे रे |
अन्धे आगे दीपक बाले वृथा तेल जलावे रे ||
यह क्या कर रहे हो किधर जा रहे हो |
अँधेरे में क्यों ठोकरें खा रहे हो ||
बनाया है स्वयं जिसको हाथों से अपने।
गजब है ! प्रभु उसको बतला रहे हो।।
बुतपरस्तों का है दस्तूर निराला देखो।
खुद तराशा है मगर नाम खुदा रखा है।।
सच तो यह है खुदा आखिर खुदा है और बुत है बुत।
सोच ! खुद मालूम होगा यह कहाँ और वह कहाँ।।
*महर्षि दयानन्द जी का कथन --*
"मूर्ति जड़ है , उसे ईश्वर मानोगे तो ईश्वर भी जड़ सिद्ध होगा। अथवा ईश्वर के समान एक और ईश्वर मानो तो परमात्मा का परमात्मापन नहीं रहेगा।
जैसे चक्रवर्ती राजा को एक झोपडी का स्वामी बनाना।
यदि कहो कि प्रतिमा में ईश्वर आ जाता है तो ठीक नहीं। इससे ईश्वर अखण्ड सिद्ध नहीं हो सकता। भावना में भगवान् है यह कहो तो मैं कहता हूँ कि गन्ने में दण्ड की और मिट्टी में मिश्री की भावना करने से क्या मुख मीठा हो सकता है ? मृगतृष्णा में मृग जल की बहुतेरी भावना करता है परन्तु उसकी प्यास नहीं बुझती है। विश्वास , भावना और कल्पना के साथ सत्य का होना भी आवश्यक है।" ( दयानन्दप्रकाश - पृ २६४ )
*प्रश्न -* मूर्ति पूजा सीढ़ी है। मूर्तिपूजा करते-करते मनुष्य ईश्वर तक पहुँच जाता है।
*उत्तर -* मूर्तिपूजा परमात्मा -प्राप्ति की सीढ़ी नहीं है। सीढ़ी तो गंतव्य स्थान पर पहुँचने के पश्चात छूट जाती है परन्तु हम देखते हैं कि एक व्यक्ति आठ वर्ष की आयु में मूर्तिपूजा आरम्भ करता है और अस्सी वर्ष की अवस्था में मरते समय तक भी इससे निकल नहीं पाता।
एक बच्चा दूसरी कक्षा में पढता है , उसे पाँच और छ का जोड़ करना हो तो वह पहले स्लेट अथवा कापी पर पाँच लकीरें खेंचता है फिर उसके पास छह लकीरें खेंचता है , उन्हें गिनकर वह ग्यारह जोड़ प्राप्त करता है। परन्तु तीसरी अथवा चौथी कक्षा में पहुँचने पर वह उँगलियों पर गिनने लग सकता है और पाँचवी -छठी कक्षा में पहुंचकर वह मानसिक गणित से ही जोड़ लेता है।
यदि मूर्तिपूजा सीढ़ी होती तो मूर्तिपूजक उन्नति करते-करते मन में ध्यान साधना करने लग जाते परन्तु ऐसा होता नहीं है , अतः महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है --
"नहीं नहीं , मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमें गिरकर मनुष्य पुनः इस खाई से निकल नहीं सकता ।( सत्यार्थ प्रकाश , एकादश समुल्लास )
*ईश्वर प्राप्ति की सीढ़ी तो है महर्षि पतंजलि कृत - "अष्टांग योग" - जिसके अंग - यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि हैं | विद्वान , ज्ञानी और योगीजन का सान्निध्य ही ईश्वर प्राप्ति की सीढियाँ हैं।*
*( साभार स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती*