नियोग समीक्षा:- प्राचार्य डा सुरेंद्र कुमार
*( क ) नियोग प्रथा का स्वरूप-* नियोग प्रथा, वैदिक कालीन समाज में, *केवल आपत्काल के लिए* एक सहज स्वीकार्य प्रथा रही है। परिवार के सुख, पूर्णता तथा वंश संरक्षण और उन्नति के लिए इस प्रथा का प्रचलन हुआ था। यह प्राचीन काल से लेकर पुराणकाल तक मिलती है। पांच पाण्डव, धृतराष्ट्र, विदुर आदि दर्जनों प्राचीन राजा, ऋषि-मुनि नियोगज सन्तानें थीं। पति या पत्नी की मृत्यु हो जाने पर अथवा पति या पत्नी के असाध्य रोग से ग्रस्त होने पर सन्तानार्थ यह विधि अपनाई जाती थी जो परिवार-संस्था को बचाने का उपयोगी उपाय थी। कई और विशेष कारण हैं, प्राचीन राजतन्त्रों में अनेक युद्ध होते रहते थे, उनमें हजारों-लाखों लोग मारे जाते थे। कभी महामारियों से घर-के-घर उजड़ जाते थे। उस स्थिति में गृहस्थ या स्त्री-हित का अन्य कोई उपयोगी उपाय नहीं हो सकता था। वैदिक सभ्यता में बहुविवाह वर्जित था, स्त्रियों का न विवाह होना सम्भव था, न ही उस अराजक स्थिति में सन्तानरहित एकाकी रहना सम्भव था। वैसी ही आपत्कालीन स्थितियों में इस प्रथा का मूल्यांकन करना चाहिये, सामान्य स्थिति में नहीं; क्योंकि यह सामान्य स्थिति की प्रथा ही नहीं है। इस पर भी ग्रन्थकार लिखा है कि *“जो जितेन्द्रिय रह सकें वे विवाह वा नियोग भी न करें तो ठीक है।''*
कुछ लोग नियोगप्रथा को सुन-पढ़ कर नाक-भौं चढ़ाते हैं और महर्षि दयानन्द पर आपत्ति करते हैं। वे लोग पहले यह जान लें कि यह महर्षि दयानन्द द्वारा आविष्कृत प्रथा नहीं है। महर्षि दयानन्द ने वेदादि-शास्त्रों के निर्देशानुसार वैदिक प्रथा का प्रस्तुतीकरण और समर्थन मात्र किया है। इस पर उनका अत्यन्त आग्रह नहीं था। उन्होंने *'उपदेश मञ्जरी'* में स्पष्ट लिखा कि *"विधवा-विवाह का खण्डन करने की मेरी इच्छा नहीं है''* (उपदेश १२)। इसी निर्देश के अनुसार आर्यसमाज ने विधवा-विवाह के समर्थन में आन्दोलन चलाया और विधवा विवाह शुरू किये जबकि पौराणिक वर्ग इसका कठोर विरोध करता रहा है।
ऐसे लोगों को आलोचना करने से पूर्व सामाजिक मनोविज्ञान व इतिहास पर विचार करना चाहिये। जिस समाज में जो प्रथा प्रचलित होती है वह अपने समय में इतनी सहज होती है कि उसको घृणित होते हुए भी लोग सहजतया स्वीकार करते हैं, जैसे- हिन्दुओं में घृणित शिवलिंग पूजा और जैनियों तथा नागा साधुओं में पूर्णनग्न रहने की असभ्य प्रथा। उनको इनमें असहजता प्रतीत नहीं होती, जबकि चिन्तन करने पर सभ्य समाज के लिए ये प्रथाएं अत्यन्त असभ्य और घृणास्पद सिद्ध होती हैं। ऐसे ही कभी नियोगप्रथा समाजस्वीकृत, सहज और मर्यादित प्रथा थी, विवाह की तरह। आज भी है, और प्राय: सभी समाजों में है।
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*(ख ) यूरोप और बाइबल में नियोग परम्परा-* जिस यूरोपीय संस्कृति, रहन-सहन, आचार-व्यवहार, खान-पान आदि का अनुकरण और गुणगान करने में आज अधिकांश जन गौरव का अनुभव करते हैं, उसमें कई प्रकार की नियोगप्रथाएं आज भी प्रचलित हैं। जैसे-वीर्यबैंकों की स्थापना करके कृत्रिम गर्भाधान द्वारा इच्छित रूप और गुणवाली सन्तानों की प्राप्ति वहां की जा रही है। किराये की माताओं से सन्तान प्राप्त करना कानूनी रूप से मान्य और समाज-स्वीकृत है। बिना विवाह के स्त्रियों से सन्तानोत्पत्ति की जा रही है। एक सन्तान किसी की है तो दूसरी किसी की। धनप्राप्ति के लोभ में *'किराये की मां'* का प्रचलन यूरोप के अनुकरण पर भारत में भी होने लगा है। वहां यौन-सम्बन्धों की बेहद स्वच्छन्दता है। यहां तक कि बेहद घृणित प्रथा 'समलैंगिक विवाह' आज सारे यूरोप में कानूनी मान्यताप्राप्त है, जो मनुष्य की पशु से भी पतित अवस्था है। किन्तु आज वहां के समाज में, तथा भारतीय समाज में भी ये प्रथाएं सहज स्वीकार्य हैं। हम उनकी आलोचना न करके उनकी संस्कृति को महान् मानकर उनकी ओर झुके जा रहे हैं। जबकि हमारे यहाँ तो नियोग केवल आपत्काल में विहित है और उसमें भी उपकार भावना और मर्यादा विधि थी। जब उपर्युक्त यूरोपीय घटनाओं के संदर्भ मे हम सोचेंगे तब आलोचकों को नियोग असहज नहीं लगेगा। अतः नियोग-वर्णन को आपत्कालीन सन्दर्भ में और सहज स्वीकृत प्रथा के रूप में लेने की आवश्यकता है। बाइबल, जिसको कि यहूदी और ईसाई अपना धर्मग्रन्थ मानते हैं, उसमें अनेक स्थलों पर नियोग का विधान आता है। वह वर्णन यह सिद्ध करता है कि प्राचीनकाल में यह प्रथा विश्वव्यापी थी और धर्म के अनुसार स्वीकृत थी। पाठक इस बात पर ध्यान दें कि बाइबल में नियोग करना अनिवार्य माना है जबकि भारत में ऐच्छिक था। कुछ प्रमाण बाइबल की भाषा में ही प्रस्तुत हैं-
*(अ)* सत्यार्थप्रकाश समुल्लास १३ में महर्षि ने आयतखण्ड संख्या ३७ दी है जिसमें नियोग का वर्णन इस प्रकार है- "यहूदाह का पहिलौठा 'एर' परमेश्वर की दृष्टि में दुष्ट था, सो परमेश्वर ने उसे मार डाला। तब *यहूदाह* ने *ओनान* (एर के छोटे भाई) को कहा कि *"अपने भाई की पत्नी के पास जा और उसके साथ देवर का धर्म पूरा करके उससे अपने भाई के लिए वंश चला।"* (उत्पत्ति, पर्व ३८.७-८)
*(आ)* सत्यार्थप्रकाश समु० १३, आयतखण्ड संख्या २४ में, सर: (सारा) जोकि यहूदियों, ईसाइयों, मुसलमानों की मूल माता मानी गई है तथा जिसका पति इब्राम (इब्राहिम) मूल पिता माना गया है, उनका वर्णन है । सर: को बड़ी अवस्था में किसी पैगम्बर से नियोगज पुत्र प्राप्त हुआ था जिसका नाम *इसहाक* था। देखिए बाइबल में उसका उल्लेख-
*"नियम समय में अर्थात् वसन्त ऋतु में मैं तेरे पास फिर आऊँगा और सारा के पुत्र उत्पन्न होगा।"* (उत्पत्ति, पर्व १८.१४), *"अपने कहने के समान परमेश्वर ने सर: से भेंट किया और अपने वचन के समान परमेश्वर ने सर: के विषय में किया॥ और सरः गर्भिणी हुई।''* (उत्पत्ति, पर्व २१.१-२)। इसपर ग्रन्थकार की समीक्षा आयतखण्ड २४ पर द्रष्टव्य है।
*(इ)* अब देखिए बाइबल में नियोग का अनिवार्य विधान, जिसपर कई टीकाकारों ने *'नियोग'* शीर्षक भी दिया है- *"जब कई भाई संग रहते हों, और उनमें से एक निपुत्र मर जाए, तो उसकी स्त्री का ब्याह परगोत्री से न किया जाए; उसके पति का भाई उसके पास जाकर उसे अपनी पत्नी कर ले...॥ जो पहिला बेटा उस स्त्री से उत्पन्न हो, वह उस मरे हुए भाई के नाम ठहरे....॥ यदि उस स्त्री के पति के भाई को उसे ब्याहना न आए, तो वह स्त्री नगर के फाटक पर वृद्ध लोगों के पास जाकर कहे कि....यह मुझसे पति के भाई का धर्म पालन करना नहीं चाहता ॥ तब उस नगर के वृद्ध लोग उस पुरुष को बुलवाकर समझाएं, और यदि वह अपनी बात पर अड़ा रहे... तो उसके भाई की पत्नी उन वृद्ध लोगों के सामने उसके पास जाकर उसके पांव से जूती उतारे और उसके मुंह पर थूक दे...॥ तब इस्त्राएल में ऐसे पुरुष का यह नाम (निन्दाबोधक) पड़ेगा.... 'जूती उतारे हुए पुरुष का घराना'।*
(व्यवस्था विवरण, पर्व २५, आयत ५-१०)।
इन प्रमाणों से ज्ञात होता है कि देवर से नियोग और देवर से विवाह की परम्पराएं यहूदियों और ईसाईयों में अनिवार्य थीं, और ये बाइबल में विहित हैं। पाठक उक्त विवरण में वर्णित दो परम्पराओं के अन्तर को इस प्रकार समझें। जब कोई पुरुष किसी की पत्नी से सन्तान उत्पन्न करता है और वह सन्तान उस स्त्री और उसके पति के वंश की कहाती है तो वह 'नियोग' कहलाता है। जब उसी समागमकर्त्ता पुरुष के वंश की सन्तान कहलाती है तो वह 'पुनर्विवाह' कहा जाता है। इस प्रकार से ये विश्वव्यापी परम्पराएं थी; और हैं। ये परम्पराएं चाहे किसी भी रूप में हों, मनुष्य समाज की आवश्यकताएं सदा से रही हैं, आज भी हैं और भविष्य में रहेंगी। किन्तु नियोग के सम्बन्ध में महर्षि की आलोचना करने वाले लोग 'बाइबल' और यहूदी तथा 'ईसाई-समाज' की आलोचना बिल्कुल नहीं करते । क्या बाइबल में विहित नियोग उनको स्वीकार्य है और महर्षि-वर्णित अस्वीकार्य है?
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*( ग ) प्राचीनकाल में भारत में नियोग परम्परा-* महर्षि ने प्राचीन नियोग-प्रथा को प्रस्तुत करने से पूर्व तीन विकल्प दिये हैं- *१. जो स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्य से रहना चाहें तो यह पद्धति उपद्रवरहित है। २. कुल-परम्परा को बनाये रखने के लिए किसी अपने कुल या स्ववर्ण के बालक को गोद ले लें। ३. तीसरे विकल्प में नियोग के शास्त्रीय विधान का उल्लेख है।* इसको केवल महर्षि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत विधान नहीं कहा जा सकता अपितु आचार्य सायण ने भी ऋवेदभाष्य में *"उदीर्ष्व नार्यभि"* इस मन्त्र पर भाष्य करते हुए नियोग का विधान किया है (१०.१८.८)। *"कुह स्विद्दोषा कुह...''* (ऋग्० १०.४०.२) पर भाष्य करते हुए आचार्य सायण विधवा को देवर से नियोग करने का विधान करते हैं- *“शयुत्रा=शयने, विधवेव=यथा मृतभर्त्तृका नारी, देवरम्=भर्तृभ्रातरम् अभिमुखी करोति...''*=जैसे पति के मरने पर विधवा देवर=पति के भाई को अथवा द्वितीय वर से सम्भोग करती है (और नियोगज सन्तान उत्पन्न करती है)। यही दुर्गाचार्य का मत है। निष्कर्ष यह है कि पौराणिक भाष्यकार भी वेदों में नियोग का निर्देश मानते हैं । उनके *'ऋग्विधान'* में भी नियोग का विधान है (अ० ३, श्लोक ४४, ४५)। किन्तु नियोग के आलोचक कभी पौराणिक आचार्यों की आलोचना नहीं करते।
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*( घ )* नियोग की प्रथा का उल्लेख वेदों से लेकर पुराणों तक मिलता है और इसका इतिहास रामायण, महाभारत, स्मृतियों तथा पुराणों तक में है, जो इसको तत्कालीन समाजस्वीकृत सहज प्रथा सिद्ध करता है। वसिष्ठ स्मृति अ०१८ में नियोग का विधान है। भागवत-पुराण में नियोगज सन्तानों का विवरण दिया है। वैदिक कालीन राजा *पृषदश्व* के पुत्र *रथीतर* को सन्तान न होने पर उसने अंगिरा मुनि से नियोगज पुत्र उत्पन्न किये जो 'आंगिरस' कहलाये। राजा कल्माषपाद की पत्नी *मदयन्ती* से ऋषि वसिष्ठ ने नियोग से सन्तान उत्पन्न की थी (स्कन्थ ९, अ० ९)। बलि को सन्तान नहीं हुई, तब उनकी *पत्नी सुदेष्णा* से दीर्घतमा मुनि ने नियोगज सन्तान उत्पन्न की। वाल्मीकि-रामायण के अनुसार, केसरी और अंजना दम्पती का पुत्र *हनुमान्* नियोगज पुत्र था, जो देवसमुदाय के किसी वायु वंशी (वायुदेव) का पुत्र था (युद्ध० ३०.२२, २५; उत्तर० १३.१४-४९)। इसी प्रकार बाली और सुग्रीव को भी क्रमश: इन्द्र और सूर्य का नियोगजपुत्र वर्णित किया है (वा०रामा० १.१७.१०)। महाभारत और प्राय: सभी पुराणों में इसका बार-बार उल्लेख है कि जब परशुराम और क्षत्रियों के युद्ध में अनेक क्षत्रिय मारे गये थे, तो क्षत्रियों की विधवाओं ने ब्राह्मणों से नियोग करके सन्तानें प्राप्त की थीं (महा०आदि० अ० १०४.१७७)। महाभारत-कालीन उदाहरण ग्रन्थकार ने इस प्रसंग में प्रस्तुत ही किये हुए हैं (द्रष्टव्य, महाभारत, आदिपर्व १०३, १०४ आदि अध्याय)।
*'गौतम धर्मसूत्र'* कहता है कि जीवित पति के असमर्थ होने पर अथवा पति के मरने पर उसकी स्त्री देवर से नियोग करके सन्तान प्राप्त कर सकती है (१८.४-१४)। *'वसिष्ट धर्मसूत्र'* आदेश देता है कि पति की मृत्यु के बाद पुत्रहीन स्त्री का पिता या पति का भाई गुरुजनों एवं सम्बन्धियों की अनुमति से नियोग करायें (१७.५६-६५)। *'बौधायन धर्मसूत्र'* विधवा या रुण और नपुंसक पति के उत्पन्न नियोगज पुत्र का 'क्षेत्रज' के रूप में वर्णन करता है (१.६८-६९) । *'कौटिल्य अर्थशास्त्र'* में आचार्य चाणक्य ने लिखा है कि पुत्रहीन राजा की पत्नी को और ब्राह्मण की पुत्रहीन पत्नी को समान गुणवाले व्यक्ति से नियोग करके सन्तान प्राप्त कर लेनी चाहिए (१.१७; ३.६ आदि)। *'नारद स्मृति'* में भी नियोग से दो पुत्र प्राप्त करने का निर्देश है (स्त्री-पुंस० ८०-८३)। इस प्रकार नियोग की लम्बी परम्परा व इतिहास है। ग्रन्थकार ऋषि ने उसी परम्परा को प्रस्तुत किया है।इस प्रकार प्राचीन भारतीय इतिहास में नियोगज सन्तानों के दर्जनों उदाहरण मिलते हैं। विशेष बात यह है कि सहजभाव से सम्मान और गौरव के साथ उनका नामोल्लेख किया जाता है। यहां कुछ प्रमाणों को मूलरूप में उद्धृत किया जा रहा है-
*(अ)* *'वाल्मीकि रामायण'* में अनेक स्थलों पर हनुमान् को *'वायुपुत्र'* कहा गया है। उसका कारण और विवरण इन श्लोकों में मिलता है-
*सूर्यदत्तवरस्वर्णः सुमेरुर्नाम पर्वत:। यत्र राज्यं प्रशास्त्यस्य केसरी नाम वै पिता।*
*तस्य भार्या बभूवेष्ठा अञ्जनेति परिश्रुता। जनयामास तस्यां वै वायुरात्मजमुत्तमम् ॥* (उत्तर० ३५.१९-२०)
अर्थ-सूर्य के प्रकाश के पड़ने से जिसका स्वरूप स्वर्णमय लगता है, ऐसा सुमेरु नामक पर्वत है, जहां केसरी राजा राज्य
करता है। उसकी प्रिय पत्नी अञ्जना है। उसमें देववंशी वायुदेव ने नियोग से हनुमान् को उत्पन्न किया है।
*(आ)* महर्षि व्यास ने माता *सत्यवती* के आग्रह पर निर्धारित विधि से जो नियोगज सन्तान उत्पन्न की उसका विवरण है-
*ततोऽम्बिकायां प्रथम: नियुक्त: सत्यवागृषि:॥४॥ सापि कालेन कौसल्या सुषुवेऽन्धं तमात्मजम्॥१३॥*
*ततस्तेनैव विधिना महर्षिस्तामपद्यत....अम्बालिकाम्...॥१४॥ तत: कुमारं सा देवी प्राप्तकालमजीजनत्। पाण्डुं....॥२१॥*
*स जज्ञे विदुरो नाम कृष्णद्वैपायनात्मज:। धृतराष्ट्रस्य वै भ्राता पाण्डोश्चैव महात्मन:॥२८॥* (आदिपर्व० १०५.अ०)
अर्थ-माता सत्यवती ने व्यास ऋषि को पहले अम्बिका से नियोग करने के लिए नियुक्त किया। समय आने पर उसने अन्धे पुत्र *धृतराष्ट्र* को उत्पन्न किया। उसी नियोगविधि से महर्षि व्यास अम्बालिका के पास गये। समय आने पर उसने पाण्डु नामक पुत्र को जन्म दिया। इसी प्रकार दासी में, कृष्ण द्वैपायन व्यास से *विदुर* उत्पन्न हुआ। यह धृतराष्ट्र और *पाण्डु* का भाई था॥
*(इ)* महाभारत में पांचों पांडवों को नियोग से उत्पन्न पुत्र बताया है। राजा पाण्डु सन्तानोत्पादन की शक्ति से रहित थे। उन्होंने अपनी पत्नी कुन्ती को स्वयं आदेश दिया-
*तस्मात् प्रहेष्याम्यद्य त्वां हीन: प्रजननात् स्वयम्। सदृशात् श्रेयसो वा त्वं विध्द्यपत्यं यशस्विनि॥* (आदिपर्व० ११९.३७)
*आह्वयामास वै कुन्ती गर्भार्थे धर्ममच्युतम्॥१॥ सा तं विहस्यमानापि पुत्रं देह्यब्रवीदिदम्॥४॥*
*संयुक्ता सा हि धर्मेण योगमूर्तिधरेण ह। लेभे पुत्रं वरारोहा सर्वप्राणभृतां द्वितम्॥५॥* (आदिपर्व० १२२)
अर्थ- पाण्डु ने अपनी पत्नी कुन्ती से कहा, क्योंकि मैं सन्तानोत्पादन शक्ति से रहित हूँ, इस कारण तुम्हें किसी बराबर या उत्तम स्तर के व्यक्ति से सन्तान प्राप्त करने का निर्देश देता हूं । जाओ, तुम सन्तान प्राप्त करो। कुन्ती ने सन्तानप्राप्ति के लिए, धर्मदेव नामक या किसी धर्म-वंशी व्यक्ति का आह्वान किया=उससे नियोगार्थ निवेदन किया कि 'आप मुझे एक पुत्र प्रदान करें।' धर्मदेव जो योगियों के वेश में रहते थे, उनसे संयुक्त होकर कुन्ती ने सब प्राणियों के हित करने वाले *युधिष्ठिर* को प्राप्त किया।
आगे वायुदेव नामक व्यक्ति या किसी वायुवंशी से *भीम* और इन्द्रदेव नामक या किसी इन्द्रवंशी देवसमुदाय के व्यक्ति से नियोग करके कुन्ती द्वारा *अर्जुन* नामक पुत्र प्राप्त करने का उल्लेख है (आदिपर्व० १२२.१२-१४, २८-३५)। इसी प्रकार माद्री ने भी पति पाण्डु और बड़ी रानी कुन्ती की अनुमति लेकर अश्विन् वंशी दो व्यक्तियों से नियोग करके *नकुल* और *सहदेव* प्राप्त किये (आदिपर्व १३३.१६-१७)।
*(ई)* वैदिक साहित्य में सत्यकाम जाबाल की घटना प्रसिध्द है। वस्तुतः वह नियोगज पुत्र ही था, अवैध नहीं। हाँ, पुत्रप्राप्ति के समय सेवाकार्य में संलग्न उसकी माता को यह ज्ञान नहीं हो पाया कि वस्तुतः वह किसके नियोग से उत्पन्न है। इस कारण उसने कहा कि मैं गोत्र नहीं बता सकती। इस मान्यता में यह युक्ति है कि जब उस समय नियोग से सन्तान प्राप्त करना वैध और सम्मानित था तो उसकी माता अवैध रूप से सन्तान क्यों उत्पन्न करती ? छान्दोग्य के प्रकरण में उसकी माता ने यह नहीं कहा कि “पुत्र हो गया”, अपितु यह कहा है कि *“त्वाम्-अलभे”* =तुझे मैंने पुत्र की कामना करके प्राप्त किया है। और इसका उपाय उस समय नियोग ही था (छान्दोग्य उप० ४.४.२-५) पाठक, *बाइबल* के और भारतीय सन्दर्भों में इस सहजता पर ध्यान दें कि नियोग के प्रसंग में कहीं कोई असहजता, अपराधबोध, कामुकता, लज्जा या मर्यादाहीनता का भाव नहीं है। सारा व्यवहार बहुत सामान्य है और ऐसे पुत्रों की प्राप्ति पर परिवार और समाज में खुशियां मनाने का वर्णन है। *बाइबल में तो नियोग कानूनन अनिवार्य घोषित किया हुआ है जबकि वैदिक परम्परा में स्वैच्छिक और स्त्री-पुरुष की पारस्परिक प्रसन्नता पर निर्भर है।*
*(उ) भारत में अब भी नियोग-प्रथा है-* ऊपर यूरोप में प्रचलित नियोग की जिन प्रथाओं का उल्लेख किया गया है, वे भारत में भी प्रचलित है। "किराये की माँ" (सरोगेट मदर) बनने वाली स्त्रियों की संख्या लाखों में है और यह एक व्यवसाय बन गया हैं जिसमें स्त्रियां ८-१० लाख रुपये लेकर संभोग द्वारा किसी की सन्तान उत्पन्न करती हैं। यह नियोग का निकृष्ट व्यावसायिक रूप है। भारत में तो नियोग केवल सन्तानप्राप्ति की पवित्र और मानवीय भावना से होता था। स्थान-स्थान पर वीर्यबैंक खुल रहे हैं जहां विशेष गुणवाले युवाओं या व्यक्तियों से वीर्य खरीदकर रखा जाता है और इच्छुक स्त्री कृत्रिम गर्भाधान से अभीष्ट गुणवाली सन्तान उत्पन्न करती है। इसको कानूनी रूप देनेवाला बिल शीघ्र ही आनेवाला है जिसमें एक स्त्री को अपनी सन्तान के अतिरिक्त किराये की कई सन्तान उत्पन्न करने की कानूनी मान्यता दी जा रही है। नियोग के आलोचक क्या कभी इस नयी प्रथा का विरोध करते हैं ? वे तो पशुओं से भी पतित कर्म 'समलैंगिक सम्बन्ध' के निर्णय की तथा युवा पुरुष और कन्या के बिना विवाह के साथ रहने के निर्णय का भी विरोध नहीं करते। राजस्थान में *'नाताप्रथा'* नियोग की प्रथा ही है।
*(ऊ) नियोग व्यवस्था मानव समाज के लिए अपरिहार्य-* यह एक नैसर्गिक और वैज्ञानिक तथ्य है कि प्रत्येक गृहस्थ स्री-पुरुष को सन्तान चाहिए। सन्तान न होने पर वे हर अच्छा-बुरा मार्ग, यहां तक कि संसार का सबसे घृणित और क्रूर कर्म 'दूसरों के बालकों की बलि देना' जैसा भी अपना लेते हैं। इसके लिए धर्मशास्त्रियों-समाजशास्त्रियों ने विवाह-व्यवस्था का निर्माण किया है। विवाह के बाद भी किसी एक जीवनसाथी की मृत्यु, नपुंसकता, दीर्घरोगिता, किसी कारण से सन्तान का नष्ट हो जाना आदि कारणों से सन्तान का अभाव हो जाता है। गृहस्थ उस अभाव की भी पूर्ति चाहते हैं। उसके लिए विश्व समाज में अनेक व्यवस्थाएं प्रचलित हैं- बहुविवाह, पुनर्विवाह, नियोग। इनमें से जहां कोई एक व्यवस्था स्वीकृत नहीं होगी वहां प्रकट-अप्रकट रूप से स्वच्छन्द यौन सम्बन्ध अर्थात् व्यभिचार चलेगा। बहुविवाह और पुनर्विवाह की अपनी अनेक कष्टदायक समस्याएं हैं। इसलिए वैदिक संस्कृति-सभ्यता में सबसे कम समस्यामय या निरापद नियोग-व्यवस्था को स्वीकार किया हुआ है। यदि समाज में विवाहित सन्तानरहित लोगों के लिए कोई उपव्यवस्था नहीं होगी तो निश्चित रूप से उस समाज में व्यभिचार, अव्यवस्था और मर्यादाहीनता बढ़ेगी। इनके दुष्परिणाम अधिक घातक हैं।
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जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि नियोग मानव-समाज की अपरिहार्य प्रथा है, जो मानव समाज में सहज रही है, आज भी है और जब तक मनुष्य समाज रहेगा तब तक रहेगी; हाँ रूप बदलती रहेगी । पाठक विशेष बात यह ध्यान में लायें कि मनुष्य की चाहत केवल सन्तानप्राप्ति की ही नहीं होती, उससे एक कदम आगे बढ़कर अच्छी और गुणी सन्तानप्राप्ति की भी होती है। उसका एकमात्र उपाय 'नियोग व्यवस्था' है चाहे वह किसी भी रूप में व्यवहार में प्रचलित हो। नियोग का आधारभूत सिद्धान्त जो पहले था वही आज भी है। आज विश्व में और भारत में *'किराये की मां'* (सरोगेट मदर) और *'वीर्यबैंकों के वीर्य से सन्तानप्राप्ति'* के रूप में है, और इसका प्रचलन दिनों-दिन बढ़ रहा है। *पहले विशेष गुणवाली या विशेष प्रकार की सन्तानप्राप्ति के लिए विशेष प्रकार के समान या उत्तमकोटि के व्यक्तियों ( जैसे ऋषि-मुनि, बली, क्षत्रिय आदि ) से नियोग किया जाता था, आज वीर्यबैंकों में संचित वीर्य से विशेष गुण वाली सन्तान ( जैसे वैज्ञानिक, डॉक्टर, खिलाड़ी, बुद्धिजीवी आदि )। प्राप्त की जा रही है। सिद्धान्त और मानसिकता में कोई अन्तर नहीं है, केवल नियोग का रूप बदला है।* संयोग देखिए, आज का बुद्धिजीवी और प्रगतिवादी समाज या समाजशास्त्री इन प्रथाओं को रोकने की बात नहीं करते, अपितु इसके लिए सुविधाएं देने की और इसके लिए संरक्षक कानून बनाने की मांग सरकार से कर रहे हैं। प्राचीन समाजशास्त्री, बुद्धिजीवियों ने भी यही किया था, आज के समाजशास्त्री भी वही कर रहे हैं। फिर नियोग के विरोध, आलोचना, निन्दा का अवसर ही कहां रह गया ? अपितु प्राचीन नियोग-व्यवस्था कई मामलों में उत्कृष्ट थी, वह विवाह के समान नैतिक रूप से अनुशासित एक मर्यादित विधि थी, आज के नियोगों में ऐसी कोई मर्यादित विधि नहीं है। पुरानी नियोग-व्यवस्था में सन्तानप्राप्ति पवित्र और मानवीय भावना के आधार पर की जाती थी किन्तु आज के नियोगों के सभी रूप व्यवसायिक हो गये हैं। यह स्थिति भावी मानव समाज को अमर्यादित और विकृत करने का घोर कारण बनेगी। यह व्यवसाय वेश्यावृत्ति जैसा रूप ले लेगा। नियोग की अनर्गल आलोचना करने वाले लोग बतायें कि अब वे किसकी निन्दा-आलोचना करेंगे ? आज की व्यावसायिक और अमर्यादित नियोग प्रथा की या प्राचीन व्यवसायरहित मानवीय भावनाप्रधान नियोग प्रथा की?
भारतीय समाज ही नहीं, अपितु पूरा विश्वसमाज सन्तान-उत्पत्ति को सहज भाव से देखता आ रहा है। उसने नियोगज किन्तु अज्ञातकुल के *सत्यकाम जाबाल* को एक उच्च ऋषि के रूप में, अवैध सन्तान *ईसा मसीह* और *कबीर* को एक सन्त के रूप में सम्मान दिया है। नियोगज सन्तानें तो समाज में सगी सन्तान के समान स्वीकृत, वैधानिक और सम्मान्य रही हैं। उनके जन्म पर परिवार-समाज में उसी प्रकार उत्सव मनाया जाता था, जिस प्रकार सगी सन्तान के जन्म पर मनाते थे।
संक्षेप में यों समझिए कि किसी भी कारण से सन्तानहीनता की आपत्कालीन स्थिति में परिवार, सम्बन्धियों और समाज की अनुमति से यह एक प्रकार का अस्थायी *'उपविवाह'* था जो केवल सन्तानप्राप्ति के लिए होता था। इससे परिवार की यथास्थिति, सन्तान की प्राप्ति, वंश की रक्षा, स्त्रियों को सन्तान का आश्रय आदि लाभ हो जाते थे। समाज में दुराचार का विस्तार, मर्यादाओं का उन्मूलन, परिवार का विखण्डन न होकर एक सीमा तक मर्यादा बनी रहती थी। प्राचीन जनों का पाश्चात्यों और आधुनिकों के समान व्यवसायी और पशु से भी पतित समलैंगिक जीवन या आचरण नहीं था।
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शोधकर्त्ता, समीक्षक, सम्पादक, भाष्यकार-डॉ० सुरेन्द्रकुमार
(एम०ए० संस्कृत-हिन्दी, आचार्य, मनुस्मृतिभाष्यकार)
प्राचार्य (से०नि०) राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सैक्टर-९, गुड़गांव (हरियाणा)
कुलपति, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)