हमारे पूर्वजन्म के शुभ कर्मों के आधार पर हमें सभी प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य योनि में जन्म मिला है। जीवन का कुछ व अधिकांश भाग हम व्यतीत कर चुके हैं। कुछ भाग शेष है जिसके बाद हमारी मृत्यु का होना अवश्यम्भावी है और यह निर्विवाद सत्य है। हम जीवन में शरीर के पालन हेतु आहार, विहार तथा व्यायाम आदि पर ध्यान देते हैं। कुछ लोग जिह्वा के स्वाद में पड़कर आहार के नियमों का उल्लंघन भी करते हैं।

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वेद जीवित पितरों की सेवा का ही वर्णन करते हैं, मृतकों की सेवा का नहीं , जैसाकि 🔥 आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्याय। पुत्रेभ्यः पितरस्तस्य वस्वः प्रयच्छत इहो दधात ॥ -यजुः० १९ । ६३ 🌻भाषार्थ-हे पितरो! हवि देनेवाले मनुष्य यजमान के लिए आप धन देवें। आप कैसे हैं? लाल रंग के ऊन के आसनों पर बैठे हुए। और हे पितरो! आप पुत्र और यजमानों से उस धन का धारण करो, और वे आप इस संसार में हमारे यज्ञ में रस धारण करो ॥६३॥

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वेद में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है। वेद तो घोषणापूर्ण कहते है -- *न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः* | ( यजुर्वेद ३२ -३ ) अर्थात जिसका नाम महान यशवाला है उस परमात्मा की कोई मूर्ति , तुलना , प्रतिकृति , प्रतिनिधि नहीं है। *प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस देश में मूर्तिपूजा कब प्रचलित हुई और किसने चलाई ?*

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प्रश्न) आप सब धर्मो का खंडन करते ही आते हो परन्तु अपने अपने धर्म में सब अच्छे है। किसी भी धर्म का खंडन नहीं करना चाहिए।जो आप दूसरे के धर्मो का खंडन करते हो तो आप इन से विशेष क्या बतलाते हो?......

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