30 Sep
30Sep

क्या मांस का भूख से सम्बन्ध है ??

भीष्म पाल यादव एवं सनातन धर्म पे आक्षेप उठाने वालो  को उत्तर --


उन्होंने रामायण में कुछ श्लोक बताये हैं , जहाँ पे उन्होंने कहा है कि रामायण में मांस भक्षण है , उनके इस आक्षेप को इस लिंक पे जाकर देख सकते हैं, और हम उनके सब प्रश्नों का उत्तर एक एक करके अलग अलग उद्धरणों में देखेंगे  --


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क्या श्री राम जी मांसाहारी थे ??


उत्तर -

१. जब महाराज दशरथ पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रयेष्टि यज्ञ का आयोजन करवा रहे थे तो यज्ञ की तैयारीयों के दौरान महाराज दशरथ अपने सेवकों को आज्ञा देते है की “इस यज्ञ की तैयारी करने में किसी प्राणी मात्र को कोई भी कष्ट या किसी भी प्रकार का दुःख नहीं होना चाहिए” जब दशरथ इस प्रकार की आज्ञा देते है तो कौन ये कह सकता है की रामायण काल में पशु वध किया जाता था। या पशुओं को यज्ञ में बलिदान कर दिया जाता था।  


२.  जब राम और लक्ष्मण को विस्वामित्र जी दशरथ से मांगने आते है तो ये कहते है की रावण की प्रेरणा से मारीच और सुभाहु मेरे यज्ञों में विघ्न उत्पन्न करते है। जब मैं यज्ञ करता हूँ तो मेरे आस-पास मांस, रक्त आदि फैंक देते है और यज्ञ को बीच में ही रोक देते है। अत: राम और लक्ष्मण को आप मुझे सौंप दीजिए। मैं इन दोनों भाइयों को वो ताकत, बल, अस्त्र-शस्त्र आदि दूंगा जिनके बल पर तीनों लोकों में (थल, पानी, वायु) किसी में भी इतना सामर्थ्य नहीं रहेगा जो श्री राम और लक्ष्मण को हरा पाए। यज्ञ में बहुत दूर बल्कि आस-पास भी मांस आदि को अपवित्र माना जाता था। जिससे यह सिद्ध होता है की पशु बली जैसी उस समय में भी कोई प्रथा नहीं थी। वाममार्गी जैसे लोगों ने अपनी परम्पराओं को प्राचीन दिखने के लिए रामायण, प्राचीन सत्य-सत्य शास्त्रों में जिन्होंने मिलावट कर दी और वे वाममार्गी जिन्होंने 5 मकार चलाये थे। 1. मध्य 2. मांस 3. मिन 4. मुद्रा 5. मैथुन इस प्रकार के नीच लोगों ने सत्य ग्रंथों में मिलावट करके अपनी परंपराओं को सिद्ध करने का प्रयास किया। और आज के युग में भी जहाँ गरीब और निचले तबके के लोग है वहां अभी भी वाममार्ग चल रहा है। जिससे चलते व्याभिचार, दुराचार आदि को जन्म मिला। 


३.जब श्री राम अपने महल को छोड़ कर वन में चौदह वर्ष का वनवास काटने के लिए जाते है तो वहां पर उस क्षेत्र राजा निषादराज जी से मिलते है तो निषादराज जी कहते है आप उत्तम मांस ग्रहण करिए मैं आपके लिए ओर क्या उत्तम भोग सामग्री ला सकता हूँ। तब श्री राम एक बात के द्वारा कहते है कि  कुश-आदि अजीर्ण वालका वस्त्र मैंने धारण किये है और फल और मूल ही मेरा भोजन है तो इस प्रकार उन्होंने वनवास काल में कभी-भी मांस आदि ग्रहण नहीं किया। 


टिप्पणी - कुछ वामपंथी लोग बार बार श्री राम जी के मृग मारने पे प्रश्न उठाते हैं | कुछ  तथाकथित  मुस्लिम और कुछ कम्युनिस्टो का कहना है कि श्री राम शिकारी थे । शिकार खलने जाते थे। मौलाना जगदीश अंसारी ने तो सारी हदें ही पार कर दी और कहते है कि श्री राम प्रतिदिन शिकार खलते थे। और  माँस भी खाते थे। 


यह प्रकरण अरण्य काण्ड रामायण से लिया गया है । जब सूपर्णखा श्री राम से विवाह करने के लिए बार-बार आग्रह करती है। ओर जब श्री राम के मना करने पर पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण को मारने के लिए दौड़ती है। तब श्री राम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण सूपर्णखा का नाक और कान काट देते है। क्योंकि उस समय महिलाओं को मारा नही जाता था। तब सूपर्णखा सारा का सारा व्रतांत अपने  भाई खर ओर दूषण को जाकर बता देती है। खर, दूषण, और शुलाक्ष व त्रिपरा अपने  14,000 सैनिकों के साथ श्री राम से उद्दत होकर युद्ध के लिए चढ़ाई कर देते है। तो श्री राम लक्ष्मण और सीता को पहाड़ी की एक कतरा में जाने का आदेश देते है और सारे हथियार और कवच को धारण करते हुए युद्ध को उद्दत हो जाते है। और देखते ही देखते श्री राम सवा घंटे में 14,000 सैनिकों को मौत के घाट उतार देते है। अर्थात उनको मृत्यु दण्ड दे देते है।


यह सारा का सारा व्रतांत  राक्षक  कंपन देख लेते है और रावण को आंखों देखा हाल सुना देते है जिसे सुन कर रावण श्री राम से युद्ध करने और सीता के हरण करने के  लिए उद्दत हो गए। और मारीच की सहायता से पंचवटी पहुँच जाते है। मारीच के  विषय में एक बात कही जाती है कि हिरण के सोनेमयी चर्म Goledn Deer Skin को धारण कर लेता था। तथा  हिरण की भाषा Golden Deer Languages बोलने लगता था। मारीच को देखकर ओर उसकी सोनेमयी त्वचा व उस पर आभूषण लगे देखकर माता सीता आश्चर्यचकित हो जाती है। और श्री राम और लक्ष्मण को यह कहते हुए बुलाती है कि हे! राम और लक्ष्मण अपने आयुद्ब अर्थात अस्त्र-शस्त्र ले आओ। इस मृग का हमें निरिक्षण-परीक्षण करना चाहिए। जब श्री राम मृग को देखते है तो लक्ष्मण जी कहते है “ये निश्चित ही मारीच है जो  सोनेमयी मृग  का वेश धारण कर लेता है और मृग की ही वाणी बोलता है, व इस संसार में ऐसा कोई नही जो मृग का चर्म धारण कर सकता है तब श्री राम कहते है कि अगर ये मारीच होगा तो निश्चय ही मैं इसका वध  कर दूंगा । अगर ये मारीच नहीं हुआ तो मैं इसको पकड़कर यहां ले आऊंगा।  अगर राम शिकारी होते तो निश्चित ही चाहे यह मृग होता । इसका शिकार कर देते।  अगर श्री राम प्रतिदिन शिकार करते तो इस मारीच नाम के सोनेमयी मृग को बिना कुछ सोचे समझें इसका वध कर देते।


रामायण में बहुत ज्यादा मिलावट की जा चुकी है। आज हिन्दुओ  के द्वारा भी कहा जाता है मारीच सोनेमयी मृग Golden Deer का रुप धारण  कर लेता था। और रामायण में  लक्ष्मण कहते है कि इस संसार में ऐसा कोई कार्य नही जो सृष्टि नियम के विपरीत हो जाये। श्री राम ने मारीच को पहचान कर मार दिया और तीर उसकी कृत्रिम त्वचा में जा लगा जिससे उसने उस कृत्रिम त्वचा वाले शरीर को उतार फेंका था। यहां तो रामायण में यह बात सिद्ध नही हो रही। कि श्री राम  प्रतिदीन शिकार करते थे। या मांस खाते थे। ये सारी बाते काल्पनिक है। जिन्हें टीवी सीरियल, काल्पनिक किताबों ने जन्म दिया है। जिसका बहुत बड़ा कारण है कि जैसा सुना बिलकुल वैसा ही मान लिया । न तो उस विषय पर विचार किया ओर न ही कभी उसे पढ़ने की कोशिश  की बल्कि जो सुना, जैसा सुना उसका वैसा ही प्रचार ओरों में  भी कर दिया ।


हमने तो रामायण में मांसाहार पे उठे प्रश्नों को देख लिया , अब ये भी देख लेते हैं कि श्री राम जी क्या खाते थे !!


श्रीराम मांस खाते थे अथवा नहीं - यह विषय अत्यन्त विवादास्पद है । कुछ लोगों की धारणा है कि वे क्षत्रिय वे अत: मांस खाते थे, परन्तु हमारे विचार में यह धारणा अशुद्ध है । यहां हम रामायण के कुछ स्थलों पर विचार करेंगे । जब श्रीराम को वन-गमन की आज्ञा हुई तब वे अपनी माता कौसल्या से आज्ञा लेने के लिए राजप्रासाद मे आये । माता ने उन्हें बैठने के लिए आसन और खाने के लिए कुछ वस्तुएँ दीं, उस समय श्रीराम ने कहा -


चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजले वने ।

मधुमूलफलैर्जीवन् हित्वा युनिवदामिषम् ॥(- अयो. 20.29-30)


अर्थ - माता अब तो मुझे चौदह वर्ष तक घोर वन में वास करना पड़ेगा । अत: मैं आमिष भोजन को छोड़कर मुनिजन-कथित कन्द-मूल, फल आदि खाकर ही अपना जीवन-निर्वाह करूंगा ।


इस श्लोक में 'आामिष' शब्द को देखकर मांस-भक्षण करने वाले कहते हैं कि श्रीराम मांस-भक्षण करते थे तभी तो उन्होंने कहा - "मैं आमिष को छोड़कर कन्दमूल-फलों से निर्वाह करूंगा।" यदि इस श्लोक का ऐसा ही अर्थ माना जाय तो रामायण में आगे चलकर मांस-भक्षण के जितने प्रसंग आते हैं वे सब प्रक्षिप्त सिद्ध हो जाते हैं । फिर महलों में मांस खाने का प्रसंग सम्पूर्ण रामायण में कहीं भी नहीं है, अतः इस श्लोक से ही श्रीराम के मांसाहार का निषेध हो जाता है ।


कोश में आमिष का एक अर्थ 'प्रिय वा मनोहर वस्तु' भी है, अत: उपर्युक्त श्लोक का ठीक अर्थ यह होगा कि मैं मिष्ठान्न आदि प्रिय वा मनोहर वस्तुओं को छोड़कर मुनियों जैसा आहार करूंगा । यही अर्थ ठीक एवं श्रीराम की भावना के अनुकूल है । इसके लिए एक अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत है । पंडित भगवद्दत्त जी द्वारा सम्पादित रामायण के पश्चिमोत्तरीय संस्करण में यह श्लोक इस प्रकार है -


स्वादूनि हित्सा भोज्यानि फलमूलकृताशनः ॥(- अयो. 20.21)


यहाँ स्पष्ट ही स्वादु पदार्थों को छोड़कर फल-मूल खाने का वर्णन है। “छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ।" मूल के कट जाने पर वृक्ष में न शाखा ही उग सकती है और न पत्ते ही आ सकते हैं । इस श्लोक से तो श्रीराम के मांस-भक्षण की जड़ ही कट गई है ।


रामायण में सीताजी द्वारा गंगा पर सुरा के घड़े और मांस-युक्त भात चढ़ाने का वर्णन आता है, परन्तु यह प्रकरण वाममार्गियों द्वारा मिलाया गया है । सीताजी द्वारा गंगा पर शराब और मांस-युक्त भात की बलि देना सीताजी की भावनाओं के सर्वथा प्रतिकूल है । सीताजी वन जाने के लिए श्रीराम से प्रार्थना करते हुए कहती हैं -


फलमूलाशना नित्यं भविष्यामि न संशयः।(- अयो. 27.15)


मैं वन में उत्पन्न फलों और मूलों को खाकर अपना निर्वाह कर लूंगी इसमें तनिक भी संशय नहीं है ।


पित्रा नियुक्ता भगवन् प्रवेक्ष्यामस्तपोवनम् ।

धर्ममेव चरिष्यामस्तत्र मूलफलाशना:। (- अयो. 54.16)


जब श्रीराम महर्षि भरद्वाज के आश्रम में पहुँचे तो उन्होंने अपना परिचय देकर और वनवास की बात बताकर कहा -

भगवन् ! हम लोग पिता के आदेशानुसार तपोवन में प्रवेश करेंगे और वहां फलमूल खाकर धर्माचरण करेंगे ।


श्रीराम ने अपने मित्र गुह से भी कहा था -

कुशचीराजिनधरं फलमूलाशिनं च माम् ।

विद्धि प्राणिहितं धर्मे तापसं वनगोचरम् ।(- अयो. 50.44-45)


मैं तो कुश, चीर और मृगचर्म धारण करता हूं और फल तथा कन्दमूल खाता हूं । आप मुझे पिता की आज्ञा से धर्म-पालन में सावधान एवं वन में विचरनेवाला तपस्वी समझें ।

श्रीराम की दो प्रतिज्ञाएँ प्रसिद्ध हैं। एक तो उन्होंने अपनी माता कैकेयी के समक्ष प्रकट की थी -


रामो द्विर्नाभिभाषते ।(- अयो. 18.30)


राम दो प्रकार की बात नहीं करता, जो कहता है वही करता है ।


दूसरी प्रतिज्ञा उन्होंने सीताजी के समक्ष इस रूप में रक्खी थी -

अप्यहं जीवितं जह्यां त्वां वा सीते सलक्ष्मणम् ।

न तु प्रतिज्ञां संश्रृत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषत: ॥(- अर. 10.19)


मुझे भले ही अपने प्राण त्यागने पड़ें अथवा लक्ष्मण सहित तुम्हें ही क्यों न छोड़ना पड़े, किन्तु मैं अपनी प्रतिज्ञा नहीं त्याग सकता, विशेषकर उस प्रतिज्ञा को जो ब्राह्मणों के सामने की जाये ।


श्रीराम ने फलमूल आदि खाने की प्रतिज्ञा न केवल अपनी माता और गुह के समक्ष की है अपितु महर्षि भरद्वाज के समक्ष भी अपनी प्रतिज्ञा को दोहराया है जो ब्राह्मण ही नहीं, ऋषि हैं, अतः स्पष्ट सिद्ध है कि श्रीराम मांस नहीं खाते थे ।


वन को चलते समय श्रीलक्ष्मण जी ने भी अपनी उपयोगिता बताते हुए कहा था -

आहरिष्यामि ते नित्यं मूलानि च फलानि च ।

वन्यानि यानि स्वाहार्हाणि तपस्विनाम् ॥(- अयो. 31.26)


मैं आपके लिए कन्दमूल-फल और तपस्वियों के भोजन करने योग्य वन में उत्पन्न होनेवाले शाक-पात आदि वस्तुएँ नित्य ला दिया करूँगा ।


इस प्रकार श्रीराम आदि की प्रतिज्ञाओं को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वे मांस नहीं खाते थे । जहां उनके मांस खाने का उल्लेख है वह स्थल निश्चितरूप से प्रक्षेप है ।


श्री राम जी वेदों के पालन करने वाले थे , वह चारो वेद और धनुर्वेद में विद्वान थे |

जब वेदों में मांस खाने का आदेश नही , तो वह मांस कैसे खा सकते हैं , क्यूंकि उनके चरित्र को ही देखकर पता लगता है कि वह वेदों के मानने वाले थे | वह नियमों और अपने वचनों पे टिकने वाले पुरुष थे |


चलिए अब वेदों में देखते हैं -


यजमानस्य पशून् पाहि ।१॥१॥ (यजुर्वेद)

अर्थ - यजमान के पशुओं की रक्षा करो ।


यदि नो गां हमि यद्यश्वं यदि पूरुषम् ।

तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा ॥-अथर्ववेद 

भावार्थ - यदि हमारी गौ, घोड़े पुरुष का हनन करेगा तो तुझे शीशे की गोली से बेध देंगे, मार देंगे जिससे तू हननकर्त्ता न रहे । अर्थात् पशु, पक्षी आदि प्राणियों के वध करने वाले कसाई को वेद भगवान् गोली से मारने की आज्ञा देता है ।


वेदों में मांस खाने का निषेध इस रूप में किया है । मांस बिना पशुहिंसा के प्राप्त नहीं होता है । अश्व, गौ, अजा (बकरी), अवि (भेड़) आदि नाम लेकर पशुमात्र की हिंसा का निषेध किया है और द्विपद शब्द से पक्षियों के मारने का भी निषेध है ।


इन सब बातो से साफ़ साफ़ प्रमाणित होता है कि रामायण में मांस खाने का विधान है ही नही और जिन श्लोको में मांस खाना बताया गया है वह कुछ श्लोको के विरोधी भी हैं | रामायण के बहुत से श्लोक तो मिलावटी हैं , मैंने आपको बताया भी था कि किसी ग्रन्थ में मिलावट कैसे पहचानी जाती है | जब किसी ग्रन्थ में दो विरोधाभाषी बाते होती हैं , तो उनमें दो बातो में कोई एक बात सत्य होता है , कोई एक गलत | और क्या सही है क्या गलत उसे पहचानने के लिए पूरा ग्रन्थ पढ़ना होता है | मैंने ऊपर रामायण से बहुत से प्रमाण और उद्धरण से बताया है कि रामायण में मांस का विधान है ही नही , इसलिए मांस वाले श्लोक वाल्मीकि रामायण का हिस्सा है ही नही |मैं अगले एक नए पोस्ट में और बताऊंगा कि क्या श्री राम मांसाहारी थे !!


दूसरी बात पोस्ट करता ने उत्तर कांड का भी ज़िक्र किया है , जो कि पूर्णतया गलत है , क्यूंकि उत्तरकांड वाल्मीकि रामायण का हिस्सा ही नही है , वह बाद में मिलाया हुवा कांड है |

आज प्राप्त रामायण के विभिन्न संस्करणों में कुछ कुछ भिन्नता हैं।  इस समय प्राप्त रामायण में ७ कांड हैं- बाल कांड, अयोध्याय कांड, अरण्य कांड, किष्किन्धा कांड, सुंदर कांड, युद्ध कांड और उत्तर कांड।

सबसे अधिक विवादस्पद उत्तर कांड को माना जाता हैं क्यूंकि इस कांड में श्री राम का अंतिम जीवन, सीता कि निंदा और वन गमन, सीता शोक, लव कुश का जन्म, शम्बूक वध आदि वर्णित हैं।

एक नए पोस्ट में बताऊंगा कि उत्तरकांड प्रक्षिप्त कैसे है |


आगे चलिए मनुस्मृति को देखते हैं --


वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः ।

मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥मनु ५।५३॥

जो सौ वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और जो जीवन भर मांस नहीं खाता है, दोनों को समान फल मिलता है ।


उन्होंने कुछ मनुस्मृति के कुछ श्लोको पे आक्षेप उठाये है  , उन्हें देखते हैं -


द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान्हारिणेन तु |

औरभ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनाथ पञ्च वै || (मनुस्मृति 3/268)

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है


टिप्पणी - ये (३।११९-२८४) १६६ श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - 

(क) ये सभी श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । ३।११७-११८ में गृहस्थी पति - पत्नियों के लिये ‘यज्ञशेषभुक्’ कहा है । और ३।२८५ में यज्ञशेष को ही अमृत - भोजन कहा है । अतः इन श्लोकों की पूर्णतः परस्पर संगति है । इनके मध्य में ये १६६ श्लोक प्रसंग को भंग कर रहे हैं ।

 (ख) और यहाँ पंच्चमहायज्ञों का विधान क्रमशः किया गया है अर्थात् ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेवयज्ञ और अतिथि यज्ञ । इनमें पितृयज्ञ का वर्णन ३।८३ में समाप्त हो गया । ३।९४ में वैश्वदेवयज्ञ का विधान पूर्ण हो गया । तत्पश्चात् अतिथियज्ञ का विधान करके गृहस्थी को यज्ञशेष खाने को कहा गया है । इस अतिथियज्ञ के बाद ३।११८ से ३।२८५ के बीच के श्लोक बिना किसी क्रम के प्रकरणविरूद्ध मिलाये गये हैं । इन पंच्चयज्ञों में (३।११९) राजा, स्नातक आदि का सत्कार ३।१२१ में वैश्वदेवयज्ञ का पुनः विधान, ३।१२२ से २८४ तक ‘पितृयज्ञं तु निर्वत्र्य’ पितृयज्ञ करके मृतकश्राद्ध का विधान करना बिनाक्रम के अप्रासंगिक है । क्यों कि ३।२८६ में ‘सर्व विधानं पांच्चयज्ञिकम्’ कहकर मनु ने प्रकरण का स्पष्ट निर्देश किया है । इस प्रकरण में ‘मृतकश्राद्ध’ का किसमें अन्तर्भाव माना जाये ? पितृयज्ञ में अन्तर्भाव माना जाये तो उसका खण्डन ३।१२२ में प्रक्षेपक ने स्वंय कर दिया कि पितृयज्ञ को करके श्राद्ध करे । अतः प्रक्षेपक के कथनानुसार भी मृतकश्राद्ध पितृयज्ञ से भिन्न है । अतः मृतकश्राद्ध का प्रक्षेप सर्वथा ही असंगत है । 

(ग) मनु ने ३।६७ में ‘वैवाहिकेऽग्नौ कुर्वीत....................पंच्चयज्ञ विधानम्’ लिखकर तथा ३।८२ में पितृयज्ञ को दैनिक कर्तव्य बताया है । किन्तु मृतक श्राद्ध को मासिक, त्रैमासिक माना गया है । अतः मनु के विषय - निर्देश से मृतकश्राद्ध - बाह्य होने से प्रक्षिप्त है । 

(घ) मृतक - श्राद्ध की मान्यता मनु की मान्यता से विरूद्ध है । मनु ने जीवित पता - मातादि की तन, मन, धन से सेवा करने का तो निर्देश सर्वत्र किया है, मृतकों का नहीं । मनु ने ३।८०-८२ श्लोकों में जीवित - पितरों की पूजा तथा ‘प्रीतिमावहन्’ कहकर उनकी प्रसन्नता के लिये पितृयज्ञ लिखा है । किन्तु जो पितर मर गये हैं, उनकी तृप्ति तथा प्रसन्नता कथमपि सम्भव नहीं है । ‘पितर’ शब्द के अर्थ से भी स्पष्ट है - जो पालन तथा रक्षण करे वह ‘पितर’ कहाता है । मृतक - जीव इन दोनों अर्थों की कदापि पूर्ति नहीं कर सकते । और २।१२६ वें श्लोक से स्पष्ट है कि आंगिरस ने जो पितरों को पढ़ाया था, वे जीवित ही थे । और ९।२८ में पत्नी के आधीन पितरों का सुख भी जीवितों में ही संगत होता है । और दैनिक पितृयज्ञ का घर पर ही विधान किया है, किन्तु ३।२०७ आदि में मृतकश्राद्ध का विधान वनों, नदीतीरों तथा एकान्त में किया है । यह भिन्नता भी मनुसम्मत नहीं हो सकती । और मनु ने २।८२ में पितृयज्ञ को ही श्राद्ध माना है, किन्तु ३।१२२ में मृतकश्राद्ध को पितृयज्ञ से भिन्न माना है । मनु ने पितृयज्ञ के लिये अन्न, जल, कन्दमूल, फलादि ही आवश्यक माने हैं, किन्तु मृतकश्राद्ध में मांस से श्राद्ध करना अधिक फलदायक तथा उत्कृष्ट माना गया है । और (३।२६६ से २७२ तक) मृतकश्राद्ध में मांसभक्षण का वर्णन है, जब कि मनु ने (५।४३-५१) मांसभक्षण को पाप माना है और मांस बिना हिंसा के प्राप्त नहीं हो सकता । 


जिस मनु ने (३।६८-६९) श्लोकों में सूना - हिंसाजन्य दोषों की निवृत्ति के लिये और जो कि चक्की, चूल्हादि के द्वारा अनजाने में होने वाले हैं । पंच्चमहायज्ञों का विधान किया है, क्या वह इस प्रकार के मांसभक्षण का विधान कर सकता है ? और मनु ने शुभाशुभ कर्म करने वाले को ही कर्मफल का भोक्ता मानते हैं, परन्तु मृतकश्राद्ध में (३।२२०-२२२) एक के श्राद्ध करने से सात सात पीढ़ी के पूर्वजों को पुण्यफल की प्राप्ति की बात मनु सम्मत कैसे हो सकती है ? और मनु तो (१।८८, २।१४३ में) कर्मणा वर्ण व्यवस्था कोमानते हैं, किन्तु इस मृतकश्राद्ध में (३।१३६ - १३७,१५२ - १५६,१६४,१६६,१८२) जन्मना वर्णों को मानने के स्पष्ट संकेत हैं । और मनु ने वेदाध्ययन को (२।८० - ८१) दैनिक कर्तव्य तथा उसमें अवकाश का निषेध किया है किन्तु ‘न च छन्दास्यधीयीत’ (३।१८८ में) मृतकश्राद्ध में वेद - पाठ का निषेध किया है । और मनु ने सृष्टि - उत्पत्ति (१।६,१४ - २० में) परमात्मा द्वारा पंच्चभूतों से मानी है । जब कि यहाँ (३।२०१ में) ऋषियों से चराचर जगत् की उत्पत्ति मानी है ।


 मनु ने १।९१ में शूद्रों का कर्म सेवा करना माना है, किन्तु श्राद्ध में शूद्र का स्पर्श भी निन्दनीय (३।२४१) माना है । ३।१९७ में वसिष्ठ के पुत्र सुकाली शूद्रों के पितर लिखे हैं, तो शूद्रों के घर श्राद्ध खाने कौन ब्राह्मण जायेंगे ? और वसिष्ठ ऋषि के पुत्र शूद्रों के पितर हैं, तो जन्मना वर्ण मानने वाले उन्हें शूद्र कैसे कह सकते हैं ? इस प्रकार की मनु की मान्यताओं का मृतकश्राद्ध के श्लोकों में विरोध भरा हुआ है, क्या इन विरूद्ध बातों को कोई बुद्धिमान् व्यक्ति मनु की मान सकता है ? 


(ड) इन मृतकश्राद्ध के श्लोकों में अत्यधिक परस्पर विरोधी बातें भी भरी पड़ी हैं, जिनसे स्पष्ट है कि इनको बनाने वाला कोई एक पुरूष न होकर भिन्न - भिन्न समय के भिन्न - भिन्न पुरूष हैं । ३।१४७ श्लोक में हव्य - कव्य देने में प्रथम कल्प और अनुकल्प का वर्णन भी भिन्न लेखकों को स्पष्ट करता है । बाद में जिसने श्लोक मिलाये, उसने अनुकल्प कहकर मिश्रण किया और इसी लिए इनमें प्रथम श्लोकों से स्पष्ट विरोध है ।


 परस्पर विरोधी कुछ उदाहरण देखिये -

 १. ३।१३६ - १३७ में वेदज्ञानरहित को भी श्राद्ध में जिमाने के योग्य लिखा है, किन्तु ३।१४२ - १४६ तथा ३।१२८ - १३१ श्लोकों में वेद से अनभिज्ञ ब्राह्मण को श्राद्ध में अयोग्य माना है । 

२. ३।१२९ में वेदानभिा को दैवकर्म में जिमाने का निषेध किया है । और ३।१४९ में दैवकर्म में ही ब्राह्मण की विद्वत्तादि को जांच करने का निषेध किया है । 

३. मृतकश्राद्ध में (३।२६६ - २७२,३।१२३) मांसभक्षण का विधान किया है और (३।१५२ में) मांस बेचने वाले ब्राह्मण को जिमाने का भी निषेध किया है । और ३।२३३ - २३७ तक श्लोकों में अन्न से पितरों की तृप्ति, ३।१२४ में अन्न से श्राद्ध और ३।१२३ में मांस से ही श्राद्ध करना लिखा है ।

 ४. ३।१९६ - १९७ में चारों वर्णों के पितरों का उल्लेख किया है । उन में शूद्रों के सुकाली नामक पितर माने हैं और ३।२४१ में कहा है कि शूद्र के स्पर्श से भी श्राद्ध का अन्न निष्फल हो जाता है । क्या शूद्र अपने पितरों को बिना छुए ही तृप्त कर सकता है ?

 ५. ३।१८८ में मृतकश्राद्ध में वेदपाठ करने का निषेध किया है, किन्तु ३।२३२ में वेदाध्ययन करने का विधान किया है । 

६. ३।१२२ में पितृयज्ञ से श्राद्ध को भिन्न माना है, किन्तु अन्यत्र सर्वत्र श्राद्ध को पितृकार्य कहकर दोनों को एक माना है । ३।१२७ में तो पितृयज्ञ को प्रेतकृत्य ही कहा है । 

७. ३।१९२ में पितरों को ‘सततं ब्रह्मचारिणः’ कहकर सदा ब्रह्मचारी माना है । ३।२०० श्लोक में पितरों के पुत्रों तथा पौत्रों का वर्णन किया है । क्या सदा ब्रह्मचारियों के भी पुत्र - पौत्र सम्भव हैं । 

८. पितर कौन होते हैं, इसके विषय में तो बहुत ही विरोधी वर्णन किया गया है । ३।२२० - २२२ श्लोकों में पूर्वज पिता, पितामहादि को पितर कहा है और ३।२०१ में ऋषियों से पितरों की उत्पत्ति ३।१९४ में मरीची आदि ऋषियों के पुत्रों को पितर माना है । यदि सोमसदादि ऋषि - पुत्र ही पितर हैं तो पूर्वज पिता, पितामहादि जो ऋषि - पुत्र नहीं हैं, उनको पितर कहना निरर्थक है । यदि यह कहा जाये कि सब मनुष्य ऋषियों की ही सन्तान हैं, तो चारों वर्णों के (३।१९४ - १९९) अग्निवष्वात्तादि भिन्न - भिन्न पितर होने का क्या कारण है ? और ३।२८४ में वसुओं को पितर, रूद्रों को पितामह और आदित्यों को प्रपितामह कहकर कौन से पितर माने हैं ? अतः इस विभिन्नता से पितरों का निर्णय करना सम्भव ही नहीं है । 

९. ३।१३८ में श्राद्ध में मित्र को जिमाने का निषेध किया है, किन्तु ३।१४४ में जिमाने का विधान किया है । 

१०. ३।१२५ में कहा है कि पितृश्राद्ध में धनसम्पन्न व्यक्ति भी विस्तार, न करे । केवल एक - एक अथवा तीन ब्राह्मणों को जिमावे । किन्तु ३।१४८ में नान, मामा, सास, श्वसुर, गुरू, दौहित्रादि को जिमाने का तथा ३।२६४ में ब्राह्मणों के बाद रिश्तेदारों तथा जातिवालों को जिमाने का विधान किया है । क्या विस्तार का निषेध करके यह विस्तार का ही विधान नहीं है ?

 ११. यदि ३।२२० - २२२ श्लोकानुसार पूर्वज ही पितर हैं, और ३।१२७ के अनुसार प्रेतकृत्य ही श्राद्ध है, तो मरने के पश्चात् पितर तो कर्मानुसार योनियों में चले जाते हैं | फिर वे श्राद्ध के समय कैसे आ सकते हैं ? सशरीर आते हैं, या बिना शरीर के ? सशरीर आते हैं, तो दिखाई क्यों नहीं देते ? यदि बिना शरीर के आते हैं, तो जिस घर में वे शरीर को छोड़कर आते हैं, क्या उस घर के व्यक्ति मुर्दा समझकर शव को जलाते नहीं ? क्या उन्हें भी श्राद्ध का ज्ञान रहता है ? यदि रहता है, तो आजकल भी रहना चाहिये ? अन्यथा शव को जलाने के बाद श्राद्ध को खाकर पितर - जीव कहाँ जाते हैं ? इत्यादि अनेक भ्रान्तियाँ इस मिथ्या मान्यता से उत्पन्न होती हैं ? जिन का समाधान इस मान्यता को मानने वालों के पास कोई नहीं है । 

और ३।१८९ में लिखा है कि श्राद्ध में पितर ब्राह्मणों के पीछे - पीछे चलते हैं और बैठते समय बैठते हैं । क्या बिना शरीर के चलना बैठनादि क्रियायें सम्भव हैं ? और ३।२५० में कहा है कि यदि श्राद्ध में ब्राह्मण शूद्रा स्त्री का संग करता है, तो पितर उस स्त्री के मल में महीना भर पड़े रहते हैं । क्या यह महान् अन्याय नहीं कि दुष्कर्म कोई करे और उसका फल पितर भोगें ? और ३।१९६ में सांपों को भी पितर मानना क्या उपहास्यास्पद नहीं है ? 

(च) इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त, बुद्धिविरूद्ध अशास्त्रीय बातें भी कम नहीं हैं ।


 कतिपय उदाहरण देखिये - 

१. ३।१४६ में लिखा है - श्राद्ध में ब्राह्मण को जिमाने से सात पीढ़ियों तक के पितरों की तृप्ति हो जाती है । यह सात पीढ़ियों की ही सीमा क्यों ? सभी पूर्वजों की कह देना चाहिये था! यथार्थ में भोजन कोई करे और तृप्ति दूसरे की हो जाये, यह कथन ही मिथ्या है । 

२. ३।१७७ में कहा है - श्राद्ध में ब्राह्मण को जिमाते हुओं को यदि अन्धा व्यक्ति देख लेता है तो ९० वेदपाठियों को जिमाने का फल नष्ट हो जाता है । यह कितनी विचित्र बात है, क्या अन्धा पुरूष भी देख सकता है ? और देखने मात्र से किसी पुण्यापुण्य कर्म का फल कैसे नष्ट हो सकता है ?

 ३. ३।१७८ में कहा है - शूद्र - याजक के स्पर्श से ही दान का फल नष्ट हो जाता है । ३।१७९ में कहा है - लोभवश ब्राह्मण दान लेकर शीघ्र नष्ट हो जाता है । ३।१९० श्राद्ध में निमन्त्रित ब्राह्मण भोजन न खाये तो सूकर योनि में जाता है । ३।१९१ में श्राद्ध में जीमने वाले ब्राह्मण को शूद्रा के साथ संग करने पर दाता के समस्त दुष्कर्मों का फल मिलता है । ३।२०५ में दैवकर्म के प्रारम्भ में श्राद्ध करने वाला कुलसहित नष्ट हो जाता है । ३।२३० में श्राद्ध - अन्न में पैर से स्पर्श होने पर राक्षसों द्वारा अपहरण करना । ३।२४९ में श्राद्ध का झूठा अन्न शूद्र को देने से कालसूत्र नामक नरक में जाना, इत्यादि अतिशयोक्ति पूर्ण तथा कार्य - कारण भाव सम्बन्ध से रहित बातों को कौन बुद्धि - जीवी स्वीकार कर सकता है ? स्पर्शमात्र से फल कानष्ट होना , दूसरे के कर्म का फल दूसरे ने भोगना, और कल्पित नरकादि काभय दिखाना उदरम्भरी ब्राह्मणों की पोप लीला मात्र ही कहनी चाहिये ।

 ४. जब श्राद्ध को प्रक्षेपक ने प्रेतकर्म माना है, तो क्या मृत - पितरों से किसी वर की प्राप्ति हो सकती है ? ३।२५८ - २५९ में कहा है कि ब्राह्मणों को जिमाने के बाद यजमान दक्षिण दिशा में मुख करके - ‘दानदाता बढ़ते रहें, कुल में दानादि देने की श्रद्धा बनी रहे’ इस प्रकार के वरों को माँगे । क्या यह निरर्थक वर - याचना नहीं है ? और ३।२६२ - २६३ में कहा है कि यजमान की पत्नी यदि पुत्र चाहती है तो श्राद्ध में बनाये आटे के पिण्डों में से बीच के पिण्ड को खा लेवे । क्या इस प्रकार के कर्म से सन्तान की प्राप्ति हो सकती है, जिसमें कोई कार्य कारण भाव सम्बन्ध नहीं है ? 

५. ३।२०१ में कहा है कि पितरों से देव व मनुष्यों की उत्पत्ति होती है और देवों से जड़ - चेतन जगत् की उत्पत्ति होती है । इस जगत् को परमेश्वर प्रकृति से बनाता है और वह कभी जन्मादि धारण नहीं करता । इस सत्य मान्यता के विरूद्ध प्रकृति आदि साधनों के बिना देवों ने सृष्टि को कैसे बनाया ? क्या ये परमेश्वर से भिन्न हैं ? भिन्न हैं तो भिन्न - भिन्न देवों की सृष्टि - रचना भिन्न - भिन्न होनी चाहिये । किन्तु सृष्टि में एकरूपता तथा एक व्यवस्था से स्पष्ट है कि इसको बनाने वाला एक ही है । और जो स्वयं पितरों से उत्पन्न हुए हैं, वे सृष्टि को कैसे बना सकते हैं ? और चेतन जीवात्मा एक शाश्वत सत्ता है, किन्तु यहाँ उनको भी बनाने की बात कही है, यह कितनी असम्भव बात है |

६. ३।२६८ - २७२ तक भिन्न - भिन्न पशुओं के मांस से जो पितरों की तृप्ति लिखी है, वह कैसी विषम है । किसी से महीने भर, किसी से त्रैमासिक, किसी से वर्ष भर और किसी से अनन्तकाल तक तृप्ति लिखी है । लोक में हम देखते हैं कि भौतिक पदार्थों से कुछ समय तक ही तृप्ति होती है । एक दिन में भी अनेक प्रकार के भोजन खाना होता है । पहले तो श्राद्ध में पितर आ नहीं सकते और उन्हें विभिन्न प्रकार के मांसों से विभिन्न प्रकार की तृप्ति करना केवल मांसाहारी वाममार्गी मनुष्यों से स्वार्थवश लीला की गई है । अथवा स्वार्थी ब्राह्मणों ने यह पोपलीला लिखी है । 

७. ३।२१७ श्लोक में छः ऋतुओं तथा मृत - पितरों को नमस्कार करने की बात भी मिथ्या है । ऋतुओं को नमस्कार करना निरर्थक है और जो इस लोक में नहीं रहे, उन मृत - पितरों को नमस्कार करना भी व्यर्थ है । क्यों कि नमस्कार का अर्थ सत्कार करना है, इस अर्थ की इनके साथ कोई संगति नहीं है । 

८. इसी प्रकार मृतक - श्राद्ध के अनेक भेद माने हैं । जैसे ३।२५४ श्लोक में पितृश्राद्ध, गोष्ठी श्राद्ध, अभ्युदय श्राद्ध तथा दैवश्राद्ध । किन्तु इनका पितृश्राद्ध को छोड़कर नाम - मात्र ही वर्णन है । इन की विधि का वर्णन नहीं किया गया है और श्राद्ध करने के विशेष समय, नक्षत्र तथा तिथियाँ लिखी हैं - जैसे ३।२७३ में वर्षा ऋतु, मघानक्षत्र, त्रयोदशी तिथि को श्राद्ध के लिये उत्तम माना है । ३।२७६ में कृष्णपक्ष में दशमी से लेकर पौर्णमासी तक की तिथियाँ श्राद्ध करने में श्रेष्ठ हैं, चतुर्दशी को छोड़कर । ३।२७७ में युग्म (सम) संख्या वाली तिथियों, नक्षत्रों में श्राद्ध करने से सब इच्छायें पूरी होती हैं । ३।२७८ में शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष, पूर्वह्न की अपेक्षा अपराह्न को श्रेष्ठ माना है । और ३।२३६ - २३७ में अत्यन्त - गर्म अन्न को ही पितर खाते हैं । इत्यादि बातें अयुक्तियुक्त, असंगत तथा मिथ्या प्रपंच मात्र ही हैं । क्यों कि मनुसम्मत दैनिक पितृयज्ञ से इनकी कोई संगति नहीं है । 

(छ) इन मृतक - श्राद्ध के श्लोकों से इनकी अर्वाचीनता के संकेत भी मिलते हैं । क्यों कि इनमें ऐसी - ऐसी मान्यताओं का समावेश है, जिससे स्पष्ट है कि जब से ये मान्यतायें प्रचलित हुई हैं, तब या उसके बाद ही किसी ने इन श्लोकों को इसलिये मिलाया है, क्यों कि मनुस्मृति को सभी प्रामाणिक मानते हैं । 

देखिये कुछ अवैदिक, मनु से असम्मत, कल्पित मान्यतायें - 

१. जन्म - जात - वर्णव्यवस्था -मनु ने वर्णव्यवस्था को कर्ममूलक माना है, जन्ममूलक नहीं । परन्तु ३।१५० - १६७ तक जिन चोर, जुआरी, मांस - विक्रयी, व्यापारी, ब्याज से आजीविका चलाने वाला, शूद्रा से विवाह करने वाला, विष देने वाला आदि को भी ब्राह्मण माना है, वह जन्ममूलक ही है । क्यों कि मनु ने ये ब्राह्मण के कर्म ही नहीं माने हैं । शूद्रों के प्रति हीन भावना - मनु ने कर्मानुसार मनुष्यों को वर्णों में बांटा है । किन्तु उनमें ऐसा कहीं भी भाव नहीं है कि जिससे परस्पर घृणाभाव प्रकट होता हो । परन्तु यहाँ ३।२४१ में शूद्र के स्पर्श से ही श्राद्ध अन्न को निष्फल माना है । जब कि मनु तीनों वर्णों के सेवा - कार्य को शूद्र का मानते हैं । क्या सेवा कार्य करने वाला स्पर्शादि से पृथक् रह सकता है ? 

३. ‘नरक’ की मिथ्या कल्पना - नरक कोई स्थान विशेष नहीं है । ‘नरक’ दुःख विशेष का ही नाम है । नरकादि पौराणिक कल्पना ही है । यहाँ ३।१७२,३।२४९ श्लोकों में ‘नरक’ को स्थानविशेष माना है और ‘कालसूत्र’ नरक का तो नाम भी लिखा है । इस प्रकार के नरक किसी स्थान विशेष में नहीं हैं । 

४. पुराणों का वर्णन - किसी के मरने पर गरूड़ - पुराणादि का पाठ पौराणिक बन्धु करते हैं । वैसा ही यहाँ ३।२३२ में पुराणों के श्राद्ध में पाठ करने का उल्लेख किया गया है । और पुराणों के इतिहास से स्पष्ट है कि पुराणों की रचना बहुत ही अर्वाचीन है । 

५. प्रेत तथा राक्षस योनियाँ - इन श्लोकों में श्राद्ध को प्रेत कृत्य तो कहा ही है, किन्तु ३।२३० में लिखा है कि श्राद्ध में आसुं गिराने से श्राद्धान्न प्रेतों को मिलता है और पैर से छूने से राक्षसों को । इसी प्रकार (३।१७०) वर्जित ब्राह्मणों को खिलाया अन्न राक्षस खाते हैं । ये प्रेत तथा राक्षस कौन हैं ? क्या मनुष्यों से भिन्न कोई योनि विशेष हैं ? और जिस अन्न को ब्राह्मणों ने खालिया है, उसे पितर, प्रेत तथा राक्षस कैसे खा सकते हैं । क्या ये पेट में कीड़े बनकर खाते हैं ? यह केवल यजमान को भयमात्र दिखाना है कि यदि श्राद्ध में कोई त्रुटि हो गई तो श्राद्धान्न पितरों को नहीं पहुंचेगा । मनु ने कर्म - फल की व्यवस्था में विभिन्न योनियों का परिगणन किया है किन्तु प्रेत - योनि कहीं भी नहीं लिखी है । और जो उत्तम तमोगुणी जीव होते हैं वे राक्षस -हिंसक, पिशाच - अनाचारी जन्म को पाते हैं । किन्तु ये मनुष्यों के ही भेद मात्र हैं । 

(ज) ये सभी श्लोक जहाँ मनु की मान्यताओं से विरूद्ध, परस्पर विरूद्ध अयुक्तियुक्त, तथा पौराणिक प्रभाव से प्रभावित हैं, वहाँ मनु की शैली से भी विरूद्ध हैं । जैसे ३।१९४ - २०१ में मनु के ही परवर्ती वंशजों को ही पितर कहना ३।१५० में ‘मनुरब्रवीत्’ ३।२२२ में ‘अब्रवीन्मनुः’ इत्यादि पाठों में अपने रचे श्लोकों को मनु के बताने की चेष्टा करना और अतिशयोक्तिपूर्ण फलकथन करना मनु की शैली कदापि नहीं हो सकती । यह अतिशयोक्तिपूर्ण अर्थवाद तथा मनु के नाम से श्लोक कहना ही इन्हें अर्वाचीन सिद्ध करता है ।


 मनु सदृश आप्त पुरूष ऐसी लोकैषणा की भावना वाली अथवा अपना प्रभाव दिखाने वाली बातें कदापि नहीं कह सकते । अतः इन श्लोकों में मनु से विरूद्ध शैली का दिग्दर्शन होने से भी ये परवर्ती प्रक्षिप्त श्लोक हैं ।


कुछ अन्य ग्रंथो को भी देख लेते हैं --


याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है –

सर्वान् कामानवाप्नोति हयमेधफलं तथा ।

गृहेऽपि निवसन् विप्रो मुनिर्मांसविवर्जनात् ॥(आचाराध्याय ७।१८०॥)

विद्वान् विप्र सर्वकामनाओं तथा अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त होता है । ऐसा गृहस्थी जो मांस नहीं खाता, वह घर पर रहता हुआ भी मुनि कहलाता है ।


इस युग के विधाता महर्षि दयानन्द ने मांस भक्षण का सर्वथा निषेध किया है । वे सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं –

१. : मद्य मांस आदि मादक द्रव्यों का पीना – ये स्त्री को दूषित करने वाले दुर्गुण हैं ।

२. : मद्य मांसादि के सेवन से अलग रहें ।

३. : जो मादक और हिंसा कारक (मांस) द्रव्य को छोड़ के भोजन करने हारे हों, वे हविर्भुज (हवन यज्ञशेष खाने वाले) हैं ।

४. : जब मांस का निषेध है तो सर्वत्र ही निषेध है ।

५. : हां, मुसलमान, ईसाई आदि मद्य माँसाहारियों के हाथ के खाने में आर्यों को भी मद्य मांसादि खाना पीना अपराध पीछे लग पड़ता है ।

६. : इनके मद्य मांस आदि दोषों को छोड़ गुणों को ग्रहण करें ।

७. : हां, इतना अवश्य चाहिये कि मद्य मांस का ग्रहण कदापि भूल कर भी न करें ।


वेदादि शास्त्रों में मांस भक्षण और मद्य सेवन की आज्ञा कहीं नहीं, निषेध सर्वत्र है । जो मांस खाना कहीं टीकाओं में मिलता है, वह वाममार्गी टीकाकारों की लीला है, इसलिये उनको राक्षस कहना उचित है, परन्तु वेदों में मांस खाना नहीं लिखा ।


महाभारत में मांस भक्षण निषेध----

सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।

धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥(शान्तिपर्व २६५।९॥)

सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि खाना धूर्तों ने प्रचलित किया है, वेद में इन पदार्थों के खाने-पीने का विधान नहीं है ।


अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः । (आदिपर्व ११।१३)

किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।


प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान्मतो मम ।

अनृतं वा वदेद्वाचं न हिंस्यात्कथं च न ॥(कर्णपर्व ६९।२३)

मैं प्राणियों को न मारना ही सबसे उत्तम मानता हूँ । झूठ चाहे बोल दे, पर किसी की हिंसा न करे ।


यहाँ अहिंसा को सत्य से बढ़कर माना है । असत्य की अपेक्षा हिंसा से दूसरों को दुःख अधिक होता है क्योंकि सबको जीवन प्रिय है । 


इसीलिये यह महान् आश्चर्य है कि –

जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत् कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् ।

यद्यदात्मनि चेच्छेत् तत्परस्यापि चिन्तयेत् ॥ (शान्तिपर्व २५९।२२॥)

जो स्वयं जीने की इच्छा करता है, वह दूसरों को कैसे मारता है । प्राणी जैसा अपने लिये चाहता है, वैसा दूसरों के लिये भी वह चाहे । कोई मनुष्य यह नहीं चाहता कि कोई हिंसक पशु वा मनुष्य मुझे, मेरे बालबच्चों, इष्टमित्रों वा सगे सम्बन्धियों को किसी प्रकार का कष्ट दे वा हानि पहुंचाये अथवा प्राण ले लेवे, वा इनका मांस खाये । 


एक कसाई जो प्रतिदिन सैंकड़ों वा सहस्रों प्राणियों के गले पर खञ्जर चलाता है, आप उसको एक बहुत छोटी और बारीक सी सूई चुभोयें तो वह इसे कभी भी सहन नहीं करेगा । फिर अन्य प्राणियों की गर्दन काटने का अधिकार उसे कहां से मिल गया ? प्राणियों का हिंसक कसाई महापापी होता है । 


महाभारत में कहा है –

घातकः खादको वापि तथा यश्चानुमन्यते ।

यावन्ति तस्य रोमाणि तावदु वर्षाणि मञ्जति ॥(अनुशासनपर्व ६४।४॥)

मारनेवाला, खानेवाला, सम्मति देनेवाला – ये सब उतने वर्ष दुःख में डूबे रहते हैं जितने कि मरने वाले पशु के रोम होते हैं । अर्थात् मांसाहारी घातकादि लोग बहुत जन्मों तक भयंकर दुःखों को भोगते रहते हैं । मनु महाराज के मतानुसार आठ कसाई इस महापातक के बदले दुःख भोगते हैं ।


हिंसा न करे---

धर्मशीलो नरो विदानीहकोऽनहीकोऽपि वा ।

आत्मभूतः सदालोके चरेद् भूतान्यहिंसया ॥(शान्तिपर्व २६५।८॥)

धार्मिक स्वभाववाला पुरुष इस लोक को चाहता हो वा न चाहता हो, सबको समान समझ कर किसी की हिंसा न करता हुआ संसार यात्रा करे । किसी को सताये नहीं ।


मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षामहे ।


हम सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें । इस वेदाज्ञानुसार सब प्राणियों को मित्रवत् समझकर सेवा करे, सुख देवे । इसी में जीवन की सफलता है । इसी से वह लोक और परलोक दोनों बनते हैं ।     


(साभार - विवेक आर्य , स्वामी जगदीश्वरानन्द सरर्स्वती , स्वामी ओमानंद सरस्वती , आर्य समाज , डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी )


आशा करता हूँ इन सब उद्धरणों से पोस्ट करता को उत्तर मिल गया होगा  अगर  न मिला तो एक बार इस पोस्ट को और रामायण आदि ग्रन्थ सब एक बार पढ़ें |

धन्यवाद ...

कमैंट्स
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