🌷🍃ओ३म् सादर नमस्ते जी 🌷🍃
🌷🍃आपका दिन शुभ हो 🌷🍃
दिनांक - - १६ मार्च २०१९
दिन - - शनिवार
तिथि - - दशमी
नक्षत्र - - पुनर्वसु
पक्ष - - शुक्ल
माह - - फाल्गुन
ऋतु - - शिशिर
सूर्य - - उत्तरायण
सृष्टि संवत् - - १,९६,०८,५३,११९
कलयुगाब्द - - ५११९
विक्रम संवत् - - २०७५
शक संवत् - - १९४०
दयानंदाब्द - - १९६
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🌷प्रत्येक व्यक्ति सरलतम रूप में ईश्वर को जानना व उसे प्राप्त करना चाहता है। हिन्दू समाज में अनेकों को मूर्ति पूजा सरलतम लगती है क्योंकि यहां स्वाध्याय, ज्ञान व जटिल अनुष्ठानों आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती। अन्य मतों की भी कुछ कुछ यही स्थिति है। अनेक मत वालों ने तो यहां तक कह दिया कि बस आप हमारे मत पर विश्वास ले आओ, तो आपको ईश्वर व अन्य सब कुछ प्राप्त हो जायेगा। बहुत से भोले-भाले लोग ऐसे मायाजाल में फंस जाते हैं परन्तु विवेकी पुरूष जानते हैं कि यह सब मृगमरीचिका के समान है। जब रेगिस्तान की भूमि में जल है ही नहीं तो वह वहां प्राप्त नहीं हो सकता। अतः धार्मिक लोगों द्वारा अपने भोले-भाले अनुयायियों को बहकाना एक धार्मिक अपराध ही कहा जा सकता है। दोष केवल बहकाने वाले का ही नहीं, अपितु बहकने वाले का भी है क्योंकि वह संसार की सर्वोत्तम वस्तु ‘ईश्वर’ की प्राप्ति के लिए कुछ भी प्रयास करना नहीं चाहते और सोचते हैं कि कोई उसके स्थान पर तप व परिश्रम करे और उसे उसका पूरा व अधिकतम लाभ मिल जाये। ऐसा पहले कभी न हुआ है और न भविष्य में कभी होगा। यदि किसी को ईश्वर को प्राप्त करना है तो पहले उसे उसको उसके यथार्थ रूप में जानना होगा। उस ईश्वर व जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानकर या फिर किसी सच्चे विद्वान अनुभवी वेदज्ञ गुरू का शिष्य बनकर उससे ईश्वर को प्राप्त करने की सरलतम विधि जानी जा सकती है। इस कार्य में हम आपकी कुछ सहायता कर सकते हैं।
ईश्वर व जीवात्मा को जानने व ईश्वर को प्राप्त करने की सरलतम विधि कौन सी है और उसकी उपलब्घि किस प्रकार होगी? इसका प्रथम उत्तर है कि इसके लिए आपको महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज की शरण में आना होगा। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर अपने ग्रन्थों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य व यथार्थ स्वरूप का वर्णन किया है जिसे स्वयं पढ़कर जानना व समझना है। यदि यह करने पर जिज्ञासु को कहीं किंचित भ्रान्ति होती है तब उसे किसी विद्वान से उसे जानना व समझना है। उपासक को महर्षि दयानन्द की उपासना विषयक मान्यताओं व निर्देशों को अच्छी तरह से समझ कर पढ़ना व अध्ययन करना चाहिये। इस कार्य में महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय, पंच महायज्ञ विधि, आर्योद्देश्यरत्नमाला, व्यवहारभानु आदि पुस्तकें सहायक हो सकती हैं।
आईये, इसी क्रम में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को जानने का प्रयास करते हैं।
जीवात्मा को ईश्वर के उपकारों से उऋण होने तथा जन्म मरण से मुक्ति के लिए ईश्वर की उपासना करनी है अतः इन दोनों सत्ताओं के सत्य स्वरूप उपासक को विदित होने चाहिये नहीं तो भ्रान्तियों में पड़कर उपासक सत्य मार्ग का चयन नहीं कर सकता। पहले ईश्वर का वेद वर्णित स्वरूप जान लेते हैं। सत्यार्थ प्रकाश के
‘स्वमन्तव्य–अमन्तव्य प्रकाश’ में महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के स्वरूप वा गुण, कर्म व स्वभाव को संक्षेप में बताते हुए लिखा है कि ‘जिसके ब्रह्म परमात्मा आदि नाम
हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है,
जिस के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो
सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक,
अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु,
न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता,
धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को
कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता
आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर
मानता हूं।’ ईश्वर के इस स्वरूप का उपासक को बार बार विचार करना चाहिये और एक एक गुण, कर्म, स्वभाव व लक्षण को तर्क वितर्क कर अपने मन व मस्तिष्क में अच्छी तरह से स्थिर कर देना चाहिये। जब इन गुणों का बार बार विचार, चिन्तन व ध्यान करते हैं तो इसी को उपासना कहा जाता है।
उपासना की योग निर्दिष्ट विधि के लिए महर्षि पंतजलि का योग दर्शन भी पूर्ण सावधानी, तल्लीनता व ध्यान से पढ़ना चाहिये जिससे उसमें वर्णित सभी विषय व बातें बुद्धि में स्थित हो जायें। ऐसा होने पर उपासना व उपासना की विधि दोनों का ज्ञान हो जाता है। ईश्वर के स्वरूप व उपासना विधि के ज्ञान सहित जीवात्मा को अपने स्वरूप के बारे में भी भली प्रकार से ज्ञान होना चाहिये। जीव का स्वरूप कैसा है? आईये इसे ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर निश्चित कर लेते हैं। ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है तो जीव भी सत्य व चेतन स्वरूप वाला है। ईश्वर में सदैव आनन्द का होना उसका नित्य, शाश्वत् व अनादि गुण है परन्तु जीव में आनन्द नहीं है। यह आनन्द जीव को ईश्वर की उपासना, ध्यान व चिन्तन से ही उपलब्ध होता है। उपासना का प्रयोजन भी यही सिद्ध होता है कि ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति व उसकी उपलब्धि करना। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं परन्तु जीव को ज्ञान के लिए माता-पिता व आचार्य के साथ वैदिक साहित्य के अध्ययन की आवश्यकता होती है, तब यह कुछ कुछ पवित्र बनता है। वह मनुष्य भाग्यवान है कि जिसके माता-पिता व आचार्य धार्मिक हों व वैदिक विद्या से अलंकृत हों। धार्मिक माता-पिता व आचार्य के सान्निध्य व उनसे शिक्षा ग्रहण कर ही कोई मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन सकता है, अन्यथा नहीं।
हमारा आजकल का समाज इसका उदाहरण है जिसमें माता-पिता व आचार्य धार्मिक व वैदिक विद्वान नहीं है, और इसी कारण समाज में भ्रष्टाचार, अनाचार व दुराचार आदि देखें जाते हैं। आजकल के माता-पिता व आचार्य स्वयं सत्य व आध्यात्मिक ज्ञान से हीन है, अतः उनकी सन्तानों व शिष्यों में भी सत्य वैदिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं आ पा रहा है। इसका हमें एक ही उपाय व साधन अनुभव होता है और वह महर्षि दयानन्द व वेद सहित प्राचीन ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों एवं वेदांगों, उपांगों अर्थात् 6 दर्शन तथा 11 उपनिषदों सहित प्रक्षेप रहित मनुस्मृति आदि का अध्ययन है। इन्हें पढ़कर मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा व संसार से संबंधित सत्य ज्ञान को प्राप्त हो जाता है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को वेद के आधार पर सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त बताया है। इस पर विचार करने से जीवात्मा अल्पज्ञ, सूक्ष्म एकदेशी बिन्दूवत आकार वाला, सर्वव्यापक ईश्वर से व्याप्य, अनुत्पन्न, अल्पशक्तिमान, दया-न्याय गुणों से युक्त व मुक्त दोनों प्रकार के स्वभाव वाला, ईश्वरकृत सृष्टि का भोक्ता और ज्ञान व विज्ञान से युक्त होकर अपनी सामर्थ्य से सृष्टि के पदार्थों से नाना प्रकार के उपयोगी पदार्थों की रचना करने वाला, कर्म करने में स्वतन्त्र परन्तु उनके फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था के अधीन आदि लक्षणों वाला जीवात्मा है।
इस प्रकार से विचार करते हुए हम जीवात्मा के अन्य गुणों को भी जान सकते हैं क्योंकि हमारे सामने कसौटी वेद, आप्त वचन व ईश्वर का स्वरूप आदि हैं तथा विचार व चिन्तन करने की वैदिक चिन्तन पद्धति है। सृष्टि में तीसरा महत्वपूर्ण पदार्थ प्रकृति है जो कारणावस्था में अत्यन्त सूक्ष्म तथा सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था है। ईश्वर इसी प्रकृति को अपनी सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता से पूर्व कल्पों की भांति रचकर स्थूलाकार सृष्टि करता है जिसमें सभी सूर्य, ग्रह व पृथिवी तथा पृथिवीस्थ सभी भौतिक पदार्थ सम्मिलित हैं।
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💐🙏आज का वेद मंत्र 💐🙏
🌷ओ३म् ईशा वास्यमिदं सर्व यत्किञ्च जगत्वां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम्।( यजुर्वेद ४०|१ )
💐भावार्थ :- जो मनुष्य ईश्वर से डरते हैं कि वह सबको सब काल में सब ओर से देखता है,यह जगत् ईश्वर से व्याप्त अर्थात सब स्थानों में ईश्वर विद्यमान हैं। इस प्रकार उस व्यापक अन्तर्यामी को जानकर कभी भी अन्याय- आचरण से किसी का कुछ भी द्रव्य ग्रहण करना नहीं चाहते,वे इस त्याग से धार्मिक होकर इस लोक में अभ्युदय और परलोक में नि: श्रेयसरूप फलों को भोगकर सदा आनन्द में रहते हैं। ।
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🕉🙏ज्ञान रहित भक्ति अंधविश्वास है
🕉🙏भक्ति रहित ज्ञान नास्तिकता है
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🌷🍃🌷🍃ओ३म् सुदिनम् 🌷🍃🌷🍃ओ३म् सुप्रभातम् 🌷🍃🌷🍃ओ३म् सर्वेभ्यो नमः
💐🙏💐🙏कृण्वन्तोविश्मार्यम 💐🙏💐🙏जय आर्यावर्त 💐🙏💐🙏जय भारत
व्हाट्सएप से साभार
लेखक - आर्य राम किशन शुक्ल